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वे हरि सब में बसि रहे / हनुमानप्रसाद पोद्दार

(राग माँड़-ताल कहरवा)
 
वे हरि सब में बसि रहे, सब ही तिन के रूप।
सब में तिन की छबि छिपी मोहन, परम अनूप॥
सुन्दर रस, बीभत्स अति, रौद्र, भले हो सांत।
जनम-मरन, सुख-दुःख, सुभ-‌असुभ, भयानक-कांत॥
वस्तु-परिस्थिति-प्रानि सब, बिबिध बिचित्र बिधान।
लीला-वपु तिन के सकल-चिदचित्‌‌, छुद्र-महान॥
निरखि-निरखि मन मुदित ह्वै, कीजै सबन्हि प्रनाम।
सब कौं दीजै सुख सदा, कीजै हित के काम॥