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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / तृतीय सर्ग / पृष्ठ ४

प्रमादी होंगे ही कितने।
मसल मैं उनको सकता हूँ॥
क्यों न बकनेवाले समझें।
बहक कर क्या मैं बकता हूँ॥61॥

अंधा अंधापन से दिव की।
न दिवता कम होगी जौ भर॥
धूल जिसने रवि पर फेंकी।
गिरी वह उसके ही मुँह पर॥62॥

जलधि का क्या बिगड़ेगा जो।
गरल कुछ अहि उसमें उगलें॥
न होगी सरिता में हलचल।
यदि बँहक कुछ मेंढक उछलें॥63॥

विपिन कैसे होगा विचलित।
हुए कुछ कुजन्तुओं का डर॥
किए कुछ पशुओं के पशुता।
विकंपित होगा क्यों गिरिवर॥64॥

धरातल क्यों धृति त्यागेगा।
कुछ कुटिल काकों के रव से॥
गगन तल क्यों विपन्न होगा।
केतु के किसी उपद्रव से॥65॥

मुझे यदि आज्ञा हो तो मैं।
पचा दूँ कुजनों की बाई॥
छुड़ा दूँ छील छाल करके।
कुरुचि उर की कुत्सित काई॥66॥

कहा रिपुसूदन ने सादर।
जटिलता है बढ़ती जाती॥
बात कुछ ऐसी है जिसको।
नहीं रसना है कह पाती॥67॥

पर कहूँगा, न कहूँ कैसे।
आपकी आज्ञा है ऐसी॥
बात मथुरा मण्डल की मैं।
सुनाता हूँ वह है जैसी॥68॥

कुछ दिनों से लवणासुर की।
असुरता है बढ़ती जाती॥
कूटनीतिक उसकी चालें।
गहन हों पर हैं उत्पाती॥69॥

लोक अपवाद प्रवर्त्तन में।
अधिक तर है वह रत रहता॥
श्रीमती जनक-नंदिनी को।
काल दनु-कुल का है कहता॥70॥

समझता है यह वह, अब भी।
आप सुन कर उनकी, बातें॥
दनुज-दल विदलन-चिन्ता में।
बिताते हैं अपनी रातें॥71॥

मान लेना उसका ऐसा।
मलिन-मति की ही है माया॥
सत्य है नहीं, पाप की ही-
पड़ गयी है उस पर छाया॥72॥

किन्तु गन्धर्वों के वध से।
हो गयी है दूनी हलचल॥
मिला है यद्यपि उनको भी।
दानवी कृत्यों का ही फल॥73॥

लवण अपने उद्योगों में।
सफल हो कभी नहीं सकता॥
गए गंधर्व रसातल को।
रहा वह जिनका मुँह तकता॥74॥

बहाता है अब भी ऑंसू।
याद कर रावण की बातें॥
पर उसे मिल न सकेंगी अब।
पाप से भरी हुई रातें॥75॥

राज्य की नीति यथा संभव।
उसे सुचरित्र बनाएगी॥
अन्यथा दुष्प्रवृत्ति उसकी।
कुकर्मों का फल पाएगी॥76॥

कठिनता यह है दुर्जनता।
मृदुलता से बढ़ जाती है॥
शिष्टता से नीचाशयता।
बनी दुर्दान्त दिखाती है॥77॥

बिना कुछ दण्ड हुए जड़ की।
कब भला जड़ता जाती है॥
मूढ़ता किसी मूढ़ मन की।
दमन से ही दब पाती है॥78॥

सत्य के सम्मुख ठहरेगा।
भला कैसे असत्य जन-रव॥
तिमिर सामना करेगा क्यों।
दिवस का, जो है रवि संभव॥79॥

कीर्ति जो दिव्य ज्योति जैसी।
सकल भूतल में है फैली॥
करेगी भला उसे कैसे।
कालिमा कुत्सा की मैली॥80॥