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वो कहीं पे और ही तल्लीन तो नही / गौतम राजरिशी

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वो है कहीं पे और ही तल्लीन तो नहीं
तू इस जरा-सी बात पे गमगीन तो नहीं

गर्मी-सी आफताब की मेरे न जिस्म में
वो भी रही है कोई महजबीन तो नहीं

लहरों ने जो यहाँ पे उजाड़ी हैं बस्तियाँ
है जुल्म साहिलों पे ये संगीन तो नहीं

आँधी में भी जला है वो मेरा चिराग है
इसमें कहीं हवा की है तौहीन तो नहीं

मेरे जो आस-पास है फुफकारता-सा कुछ
ऐ यार है तेरा ही ये अस्तीन तो नहीं

किस्सा कहो न मुझसे तो तितली व फूल का
है अब रहा मिजाज ये रंगीन तो नहीं

ये इक पतंग है जो मुहब्बत की उड़ चली
डोरी अभी यूं हाथ से तू छीन तो नहीं

रौंदे चला गया है जो तू इस कदर यहाँ
दिल है मेरा,ये फर्श पे कालीन तो नहीं