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वो टुकड़ा रात का बिखरा हुआ सा / गौतम राजरिशी

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वो टुकड़ा रात का बिखरा हुआ-सा
अभी तक दिन पे है ठहरा हुआ-सा
 
उदासी एक लम्हे पर गिरी थी
सदी का बोझ है पसरा हुआ-सा
 
उधर खिड़की में था मायूस चेहरा
इधर भी चाँद है कुतरा हुआ-सा
 
करे है शोर यूँ सीने में ये दिल
समूचा ज़िस्म है बहरा हुआ-सा
 
ये किन नज़रों से मुझको देखते हो
रहूँ हरदम सजा-सँवरा हुआ-सा
 
सुखाने ज़ुल्फ़ वो आए हैं छत पर
है सूरज आज फिर सिहरा हुआ-सा
 
लिखा उस नाम का पहला ही अक्षर
मुकम्मल पेज है चेहरा हुआ-सा
 
नहीं हो तुम तो ये हर पल है कैसा
निगाहों में धुआँ उतरा हुआ-सा
 
न छेड़ो फिर से इसको मुस्कुरा कर
वही क़िस्सा मेरा बिसरा हुआ-सा




(अभिनव प्रयास, जनवरी-मार्च 2013)