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वो बात / राजीव रंजन प्रसाद

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वो बात
जो एक नदी बन गई
क्या तुमने कही थी?
घमंड से आकाश की फुनगी को
एक टक ताक कर तुम
पत्थर की शिलाओं को परिभाषा कहती हो
हरी भरी उँची सी, बेढब पहाडी...

कितना विनम्र था वो सरिता का पानी
पैरों पर गिर कर और गिड़गिड़ा कर
निर्झर हो गया था...
तुम कब नदी की राह में
गोल-मोल हो कर बिछ गए
क्या याद है तुम्हें?
धीरे-धीरे रे मना
धीरे सब कुछ होय
चिड़िया चुग गयी खेत
अब काहे को रोय?
अहसास के इस खेल में
जब उसकी पारी हो गई
सरिता आरी हो गई...

दो फांक हो गए हो
बह-बह के रेत हो कर
उस राह में बिछे हो, कालिन्द की मानिन्द
जिस पर कदम रखे गुजरा किए है
वो याद जो एक सदी बन गई
वो बात जो एक नदी बन गई...