वो मेरी पीढ़ी के देवता मैं तुम्हारा अभिनन्दन करता हूँ / कर्मानंद आर्य
वो चलती हवाओं के खिलाफ गीत छेड़ने वाले
बांसुरी के कंधे दुखने लगे हैं
तुम्हारी अँगुलियों के तेज दाब से
संसद के कंधे पर मुस्काने वाले दोस्त
बूढ़े बरगद की छांह में सुस्ताने वाले देश में
धूप का रंग चटक तेज हो गया है
बेटियों के स्कूल जाने तक
सरसों पीली हो गई है, समय की राह ताकते
तुम्हारी योजनाओं का शहर उजड़ने वाला नहीं
जहाँ जीवित हैं तुम्हारी पुरखों की इच्छाएं
मनरेगा कायम रखेगा तुम्हारी आस्था
चिंतन शिविर में बैठे हुए देवता भूलना मत
भूख से छटपटाते समुदाय के लिए
तुम्हें जिन्दा रखना है आरक्षण
उदास रात रोने के लिए नहीं
दबे गले के भीतर जिन्दा रह सकती हैं साँसें
तुम्हारे धर्म में मातमपुर्सी नहीं
बस सान्द्र करनी हैं आदिम दलित इच्छाएं
जागरण की रात से उगेगा पीला सूरज
सुख की चिड़िया चहकेगी अगवारे, बर्फ़ पड़ेगी
देहरी में भर जाएगा अन्न
वो मेरी पीढ़ी के देवता
चमकती सलीब के धोखे में मत आना
कुछ अपनापन कायम रखना उन दोस्तों के लिए
जो तुम्हें फोनबुक से याद आते हैं
फेसबुक पर बातें करते हैं
अँधियारा कितना भी घना हो
तुम्हारे मन के प्रकाश से सबल नहीं
जेब में एक दिया-सलाई रखना
अन्याय फूकने के लिए
छोटे-छोटे तिनकों से बनती है झोपड़ी
झोपड़ी थूनी से लेती है संबल
बड़ेर कायम रखती झोपड़ी का हौसला
तुम्हारा हौसला झुका हुआ आसमान है झोपड़ी का
कायम रखना अपना स्वत्व
बहने देना शिराओं का खून
वो मेरी पीढ़ी के अंतिम देवता
मैं तुम्हारा अभिनन्दन करता हूँ