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वो मेरे दिल तलक आता मगर दाख़िल नहीं होता / अनिरुद्ध सिन्हा

वो मेरे दिल तलक आता मगर दाख़िल नहीं होता
महज़ मिलने मिलाने से ही कुछ हासिल नहीं होता

जो हम फ़िरक़ापरस्ती को मुहब्बत से मिटा देते
कोई बिस्मिल नहीं होता,कोई क़ातिल नहीं होता

ये कैसी बेबसी के दौर में अब जी रहे हैं हम
हमारी फ़िक्र में शामिल हमारा दिल नहीं होता

अगर सीने में जज़्बों की जो लौ मद्धम नहीं होती
किसी को जीत लेना फिर यहाँ मुश्किल नहीं होता

कभी जो ठान लेता है बग़ावत के लिए कुछ भी
वो लेकर हाथ में ख़न्जर कभी गाफ़िल नहीं होता