Last modified on 4 अगस्त 2020, at 21:20

वो मैं ही थी / निर्देश निधि

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:20, 4 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निर्देश निधि |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जो प्रेम के निर्जीव तन पर
निर्ममता से पाँव रख, लांघ गई थी उस
उलझी–उलझी, सदियों लंबी साँझ को
वो मैं ही थी
तुमने मेरे शांत स्थिर हुए चित्त में
सरकाईं थी अतीत की तमाम शिलाएँ
रखा था मन की सब झंकारों को मौन जिसने
वो मैं ही थी
तुम लाए थे तोड़–मरोड़ कर प्रेम तंत्र की सब शिराएँ
नहीं गूँथा था मैंने किसी एक का, कोई एक सिरा भी दूसरी से
बैठी रही थी निश्चेष्ट, निर्भाव-सी
वो मैं ही थी
सही थीं जिसने वियोग वाद्य की, उदास धुने बरसों बरस
वो भी कोई और नहीं
मैं ही थी
तुम चाहते थे अतीत की गहरी खदानों को
बहानों की मुट्ठी भर रेत से पाटना
यह देखकर जो मुस्काई थी तिर्यक मुस्कान
कोई और नहीं
मैं ही थी
तुम्हारे अपराध बोध की झुलसती धूप में
जिसने सौंपा नहीं था अपने आँचल का कोई एक कोना भी
और खड़ी रही थी तटस्थ
वो मैं ही थी
अगर होती हैं तटस्थताएँ अपराध तो
अपनी सब तटस्थताओं का अपराध स्वीकारा जिसने
वो भी तो मैं ही थी
ओझल होते ही तुम्हारे
अपनी सब तटस्थताओं को भुरभुरा कर रेत बनते देख
जो विकल हो डूबी थी खारे पानियों में
तुम मानो न मानो
वो भी कोई और नहीं
मैं ही तो थी