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वो लड़की / रूपम मिश्र

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वो लड़की चकई जैसी थी
पर ब्याह बाज़ जैसे लड़के से हुआ !

उसने गुड्डे-गुड़ियों की जगह
कुछ रोमांचक खेल खेले
बाबा की हार्दिक साध पर
चाचा के तिलक में मिली बुलट को
उसने बिंदास गाँव की सड़कों पर दौड़ाया
और ठोकर पर रखा उन ठीहे जैसे लड़कों को
जिनकी माँ ने उन्हें बस जन्म दिया
मनुष्य बनना नहीं सिखाया था

वो समाजवादी पार्टी के
किसी काडर की बिटिया नहीं थी
पर उन दिनों जवार में साइकिल की पैडल
पहली बार उसी ने मारे
वो किसी लाल झण्डे को नहीं जानती थी
पर क्रान्ति को ज़मीन पर उतारने की कुव्वत रखती थी
वो दुनिया को बदल सकती थी
पर अब दुनिया ने उसे बदल दिया

मैंने गुजरात की नई बनी दीवार नही देखी
पर जब वो देह के काले निशान को छुपाकर
झूठी हंसी हंसती है तो
मुझे लगता है कि मैंने देखी है
सच को ढकने वाली
नकली समृद्धि से पुती हुई वो दमकती दीवार !

मुझसे फ़ोन पर बातें करते हुए वो
पुराने दिनों को याद करके ख़ूब हंसती है
मुझे खटका होता है
कि वो हंसते-हंसते रो पड़ती है
फिर बात दूसरी दिशा में ले जाकर कहती है
तुम बताओ, भई !
तुम तो कविता लिखती हो

मैं सोचती हूँ —
तुमने छुटपन में
कितनी खूबसूरत कविताओं को जिया
मैं उन्ही की पुनर्व्याख्या कर रही हूँ ।
मैं कविता के विरसे में लिखूँगी
कि साथ चकई और बाज़ का नहीं होता,
साथ तो चकई और चकवे का होता है !