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शंखनाद - दो / जितेन्द्र सोनी

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गाँव से बाहर
दमितों-दलितों की
बस्ती में
गुनगुनी धूप लेकर
सूरज
घुस जाता है झोंपड़ी में
छत के सुराखों से
बिस्तरों
चारपाइयों को सहलाकर
बाहर चूल्हों को देखकर
सम्भाल लेता है
पूरा मौहल्ला
शरीक हो लेता है
गरीब-गुरबों के
हँसी-ठठ्ठों में।
फिर जोहड़ पार करके
परकोटे और महलों के
महँगे-मोटे पर्दों पीछे
आलीशान कमरों में
नहीं रुकता है
नहीं सुहाती
रुआब और रौब वाली
हवेलियां।
दमघुटे की तरह
निकलते-निकलते
बस कंगूरे-भर ही छूता है
या हद-भर
काली या दुर्गा के मंदिर की
घंटी बजाता
पहाड़ी चढ़ जाता है।
शंखनाद
सूरज का भी
कम नहीं।