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शकुन्तला / अध्याय 16 / भाग 1 / दामोदर लालदास

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मंजु माधवि-कुंज-बिच काल से वसुधेश।
रहथि बैसल प्रेयसिक विरहाग्नि झुलसति बेश।।
वीरता छल सुतल भूपक कुभ्भकरणक निन्द।
क्षीण सन तन, हीन सन बल, दीन मुख अरविन्द।।

अति हतप्रभ भेल सन छवि, सभ प्रराक्रम हीन।
वीर अति रणधीर वसुधाधीश शौर्य विहीन।।
शमन-दमनक शक्तिधर वीराग्रणी महिपाल।
आइ छथि निर्बल परम सन तेजह्त सुविशाल।।

अपन विरचित प्रेयसिक सर्वांग-सुन्दर चित्र।
दृष्टिगोचर करथि क्षण-क्षण सैह चित्र पवित्र।।
हृदय ह्ह्रति, नयन झहरति रहथि धैर्य विहीन।
प्रेयसिक दुख-शोक क्षण-क्षण सुमिरि कष्ट नवीन।

दिनमणिहुँ नृपमणिहि सन छथि हीनप्रभ अति भेल।
मलिन भय अस्ताचलक तर झांपि निज मुख लेल।।
गेल आबि विभावरी, नभ झक-झकित नक्षत्र।
प्रहर भरि निशि बितति घटना भेल नव बलवत्र।।

ने बिहाडि़, न अन्धड़क, बिड़रो न तीव्र बसात।
पर बिहाडि़हुसँ अधिक हिलि विटप पर उत्पात।।
‘दौड़ रे क्यों! दौड़ झट! मोचरैछ क्यो मम घेंट।
दूत-भूत-परेत क्यो थिक दैछ यमकें भेंट।।

कुहरि क्यो चिचिआय तरूपर बाप! बाप! करैत
‘आ बचा क्यो प्राण! अपटी खेत जानि मरैत।।
ई कराहक करुण ध्वनि जखनहि सुनल दुष्यन्त।
सुतल जे छल शौर्य जागल, बढ़ल शक्ति अनन्त।।

चट सम्हारल प्रखर शर कर धारि निज कोदण्ड।
रे उपद्रवकार! छूटय शर, करत तन खण्ड।।
शर हमर आन्हर न बुझि ले! ह्रक तेसर नैन।
खल अलक्षित धरिहुकें बेधत, न प्राणक चैन।।

से बजति धनुपर चढ़ा शर झट श्रवण तक तानि।
करय जं सन्धान लगला, थरथरायल पाणि।।
नर अपरिचित एक तम्क्षण नूपक सम्मुख भेल।
‘इन्द्र-सारथि, मातली हम’ हमहिं रचलहुं खेल।।