भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शकुन्तला / अध्याय 6 / भाग 2 / दामोदर लालदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आब अहूँ सभ कहू-एतय किनको अछि कोनहुँ कष्ट?
हवन, यज्ञमे, तपचर्यामे?--कहू कथा सुस्पष्ट।।
कोनहुँ बिघ्न-वाधा हो तँ ऐ सुमुखि! तुरन्त सुनाउ।
आयल छी हम सैह कष्ट हरणार्थ, न कहति लाजाउ।।’

परम प्रफुल्ल सखीगण बाजलि-‘धन्य तपोवन ठाम!
वसुधाधीश! जुराओल लोचन आनि चरण अभिराम।।
हमरा सभक पूर्व पुण्यक फल आजु प्राप्त भय गेल।
बिनुहिं प्रयास जाहिसँ करुणासिन्धुक दर्शन भेल।।

उदयोन्मुख दिनमणिक क्षितिजतर जें कनि होय प्रकाश।
काटि-काटि बपहारि गाढ़ तिमिरो भय जाइछ नाश।।
तहिना श्री पुरुवंशविभूषण वसुधाधिशक प्रताप।
कोन दुष्ट जरि भस्म न होयत! शत्रुहुँ थर-थर काँप।।

नहिं कहुँ विघ्न, कतहुँ नहि बाधा, तपोवनहुँ अति शान्त
हवन, यज्ञ निर्विघ्न! प्रफुल्लित तपोवनक सभ प्रान्त।।
ऋषि, मुनि, तपसी गणहुँक मानसमे आनन्द अपार।
पशुपक्षी धरिमे प्रसन्नता! नहि कहुँ दुव्र्यवहार।।

कियै हैत ककरो कोनो तरहक वाधादिक क्लेश।
जखन विश्वरक्षक अपनहिं छथि पुरुकुल-कमल-दिनेश।।’
मानि दिव्य अनुशासन चरइछ हरिणहुँ बाधक सँग।
ककर दर्प? श्रीपद अनुशासन करत क्षणहुँ भरि भंग।।

एम्हर मुसुकि सखि, शकुन्तला दिशि निज मुखमण्डल मोरि।
कहल सरस मृदुवचन मनोरम मानु सुधारस घोरि।।
‘रहितथि पिता आइ यदि आश्रम, कय नवरत्न प्रदान।
नव आगत ई अतिथिक करितथि सविधि महा सम्मान।।’

से प्रिय व्यंग भरल वाणी सुनि शकुन्तला नववाल।
सँकोचान्वित भेलि, चैंकि सनि, चुपहिं कहल तत्काल-
‘हँट सखि! सुनब आब नहि तोहर कौखन एकहुँ बात।
नहिं तँ लैह, हमहिं जाइत छी-तोर निकटसँ कात।।’

एतबे रसल सदा सखि! तोहर छोड़ब व्यंगक वान।
हँसब-हँसायब, सखि! अलगायब, सभखन तकरे ध्यान।।
नव अतिथिक सम्मानक यदि छह एहन लालसा ऊँच।
अपनहिं किये करैछह नहि तँ अतिथिक सँगहिं कूच।।

खनहुँ उठैछलि, खनहुँ रुसैछलि, खन दृग-मुसुकनि-लोल।
खनहुँ मौरि चन्द्रानन मुसकथि, स्नेहक खन अध-बोल।।
आध हँसब, आधहिं किछु बाजब, आध जनायब मान।
एतबे अस्त्र-शस्त्रसँ तरुणी हरइछ तरुणक प्राण।।

जानि सुयोग्य श्रेष्ठ अभ्यागत, देखि अनूप प्रताप।
कयल तनिक आतिथ्य हृदय दय शकुन्तला चुपचाप।।
लोचन-भ्रमर भूपहुँक उडि़-उडि़ रसिक प्रमत्त महान।
तनिकहिं फुल्ल मुखारविन्दपर बैसि करय मधुपान।।

तनिकर भावभंगिमा देखथि रहि-रहि लोचन मोडि़।
क्षण-क्षण करथि विचार मनहिं मन रसिक भूप गप छोडि़।।
यद्यपि से नहियें मिलबै छथि हमर बातमे बात।
तदपि श्रवण तनिकर नहि कौखन हंटय एम्हरसँ कात।

यदपि ठाढ़ नहियें होइत छथि मम सम्मुखसँ वाल।
तैंकि अन्य दिशि कौखन जाइछ लोचन हिनक रसाल!!
चेष्टहिं विदित सकल विधिसँ ई नव तरुणी सुखमूल।
छथि अवश्य, सन्देह ततय नहिं, हमरहिं पर अनुकूल।।

अस्तु, नृपक उर छलि शकुन्तला, शुकुन्तला-उर-भूप।
प्रणयताप बढि़ रहल अनुक्षण दुहुक ततय चुपचाप।।
क्षण उपरान्त ततय झट आयल कोन हुँ तेहन सँयोग।
दुहु भय विकल लाभ! कयलनि पारस्परिक वियोग।।

मोडि़-मोडि़ मुख नृपक निहारति आनन बारम्बार।
अड़यित, करयित विविध व्याजसँ पुनि-पुनि रूप निहार।।
सखि आगां बढि़ चललि, देखि बजली शकुन्तला बाल।
ओझरायल माधवी लतामें छी सखि! हम एहि काल।।

कहल सखी! हम सभ बुझइत छी तोहर हृदयक भाव।
माधवि नहि-माधवमे, तों छह लटपटायल सखि आब।।
यदि थम्हिये कनि आश्रम अयबह, के पुछतह किछ बात।
जनि लजाय रोकह तों हमरा, ताकह मुख-जलजात।।

एम्हर नृपहुँ भय विवस् ततयसँ यदपि कयल प्रस्थान।
किन्तु, नयन तनिकहुँ गड़ले छल, शकुन्तले पर ध्यान।।
अस्तु, ताहि पद्मिनिक पाणिग्रहणक दृढ़ आश लगाय।
किछुक दिवस तपवनहिं निकट नृप डेरा देल खसाय।।