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शकुन्तला / प्राक्कथन / भाग 2 / दामोदर लालदास

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(घ)
कतय सूर्य! कत दीप! कतय चन्दा! कत तारा!
कतय हमर लघु सरित! कतय ओ सुरसरि-धारा।।
कतय कमल, मालती! कतय ई फूल कनैलक।
की समता कय सकत सुधा-रस पूरण घैलक।।
से क्षमता की हमर! तकर छाया धरि पायब!
भाव नाटकक यथातथ्य केहि विधि हम गायब?
छी धरि हमहुँ अवश्य मातृ-पूजा अधिकारी।
माँ मैथिलि-पूजार्थ भाव-श्रद्धो अछि भारी।।
तें साजल किछु हमहुँ यथासम्भव फुल-साजी।
होइती की नहि अपन जननि श्रद्धा लखि राजी।।
करती की न दुलार मुसुकि, लखि पुत्रक सेवा?
की न देतीह दुलारि हाथ भरि अपरुब मेवा?
अस्तु, रचल ई खण्डकाव्य ताही आशासँ।
मात्र जननि-पूर्जे-सेवादिक अभिलाषासँ।
की मनीषि वा कला-विष-जन त्रुटि नहि क्षमता?
की लघु काव्योद्यान मध्य सदया नहि रमता?
विज्ञ कलाधर, कलाधरे छथि अमृत-दाता।
तिमिर फाड़ि नव दिव्य-दया-ज्योतिक निर्माता।।
ताहि मनीषीगणक विज्ञता के नहि जानय?
दया, ममत्व, दुलार मधुर तनिकर सभ मानय।।
यदि कुयोगवश कतहु मनुज पथ पिछाड़े़ खसै छथि।
सुजन स्नेहसॅं पकड़ि हाथ तनिकाँ उठाबै छथि।।
किन्तु असज्जन बेश पाड़ि थपड़ि, बिहँसै अछि।
सुजन दुर्जनक येह विचाराचार लसै अछि।।

(ड़)

तें अछि पूर्ण भरोस, कतहु पिछड़ल यदि पौता।
वृद्ध जानि कर पकड़ि स्नेहसॅं सुजन उठौता।।
त्रुटिक दोष क्षमि हमर हृदय लगौता।
मिथिलीक आजन्म जानि पूजक दुलरौता।।
तैखन हम किछु आर मधुर उपहार सजायब।
माँ मैथिलिहिक मधुर गीति कति विधि हम गायब।।
बिसरि सकब संसार, बिसरि परिवारहुँ जायब।
मैथिलि-चरण-सरोज ध्यान टा नहि बिसरायब।।
दस-पाँचहु नव सरस निरस पद-सुमन चढ़ाबी।
प्रबल लालसा यैह, जननि पद भक्ति बढ़ाबी।।
जा लोचनमे ज्योति रहत मैथिलिए गायब।
मैथिलिए पद पूजि जीवनहुँ धन्य बनायब।।

अनुवाद किछु झांकी

भ्रमर-कौतुक

यतो यतः षट्चरणोऽभिवर्तते
ततस्ततः प्रेरितवामलोचना।

कमल मुखीक वदन मण्डल पर रसिक भ्रमर झट आबि।
लागल मधु-रस पिबय मुग्ध भय भन-भन स्वरसँ गाबि।।
पाणि-पद्मसँ यदपि पद्मनी तकरा देथि उड़ाय।
ढीठ भ्रमर तैयो पंकज-मधु लपकि-झपकि पिबि जाय।।

(च)

खन अलि दौड़ि अधर-मधु चूसय. खन उड़ि चुमय कपोल।
श्रवण निकट खन आबि करै छल भन-भन शब्दक घोल।।
अस्तु. भेलि व्याकुल से मोड़थि लोचन बारंवार।
त्रास-व्याजसँ मानु सिखै छलि भ्रू कटाक्ष-संचार।।

वार्तालाप-समयक दुष्यन्तक अनुमान
वाचं न मिश्रयति यद्यपि मद्वचोभिः
कर्णं ददात्यवहिता मयि भाषमाणे।
कामं न तिष्ठति मदाननसम्मुखीयं
भूयिष्ठमन्यविषया नतु दृष्टिरस्याः।।
यद्यपि से नहिए मिलबै छथि हमर बातमे बात
यदपि श्रवण कौखन नहि तनिकर हँटय एम्हरसँ कात।
यदपि ठाढ़ नहिए होइत छथि मम सम्मुख से बाल
तें कि अन्य दिशि कौखन जाइछ लोचन हिनक रसाल।।