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शत्रुओं की कहाँ कमी थी / अशेष श्रीवास्तव

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शत्रुओं की कहाँ कमी थी
खुद के भीतर...

ज़िंदगी भर ख़ुद ही ख़ुद से
लड़ता रहा...

बाहरी शत्रु तो अक्सर
दिख जाते हैं...

भीतर के छुपे शत्रुओं से
आँख मिचौली करता रहा...

कभी समर्पण कर दिया तो
कभी आक्रमण किया...

कभी जीत गया तो कभी
मात खाता रहा...

कभी पहचान लिया तो
कभी अंजान रहा...

चोर सिपाही का खेल
खूब चलता रहा...

हक़ीकत में था कुछ और
पर दिखाता था कुछ और...

ज़िंदगी भर ख़ुद को ख़ुद ही
खूब छलता रहा...

अपना अभिमान, स्वाभिमान
औरों का स्वाभिमान, अभिमान...

था ग़लत ख़ुद ही, पर औरों को
ही सदा ग़लत समझता रहा...

काम क्रोध लोभ अभिमान में तो
खूब डूबा था ख़ुद ही...

जाने क्यों हर वर्ष दशहरे पर
रावण जलाने जाता रहा...

वो तो सदा विराजमान था
खुद मेरे ह्रदय में...

बाहर ही न जाने क्यों उसे
मैं तलाशता रहा...