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''' शब्दों की पीढ़ियाँ''' एक अरसे से शब्दों कीबदलती हुई पीढ़ियाँ तलाश रही हैं आदमकद मायने इस तलाश में जेबकतरे अर्थ की लिबास में शब्द शब्द नहीं रहे,तिरंगे मुखौटे पहन विदेशी तहजीब में वे समझाते हैं--इतर-पुते अर्थजिसके सम्मोहनी इंद्रजाल में होश खोती जा रही हैं बुरके ओढ़ी शब्दाभ्यांतर की सांस्कृतिक संकल्पनाएँ,जिन पर चढ़ती परत-दर-परतशैतानी तहजीब कीचकाचौंध निकिलकायांतरित करती जा रही हैश्यामल अतीत को कुष्ठग्रस्त वर्तमान में च्च, च्च, च्च, च्च!अच्छे आदमी की तरह जो शब्द नहीं रहे,चलते-चलते दुर्घटनाग्रस्त हो गएव्यस्त चौराहों पर,आत्महत्या कर बैठे प्रताड़ित नव-ब्याहताओं की तरह, राख चाट बैठे फटते बारूदों पर अपाहिज मकानों की तरह,उन्हें फिर से जिलाया जा रहा हैबिजली का झटका देकर,झनझनाया जा रहा है विस्फोटक फिल्मी म्युजिक की तरह,सरेआम नचाया जा रहा हैजानबूझकर नंगी घूम रही बेशर्म औरतों की तरह, नुमाइश बनाया जा रहा है खिड़कियाँ झांक रही लाइसेंसधारी शरीफ वेश्याओं की तरह  हां! ये शब्द अपने पितामहों की भभूत लपेटे हवाई पोशाक पहने ,याद दिलाते हैं उनकी जिनकी वर्षगाँठ मनाई जाती हैलाल किले पर चढ़कर झंडे फहराकर रंगीन गुब्बारे उड़ाकरदमघोटू आसमान में.