Last modified on 30 जून 2011, at 20:43

शब्द-सैनिकों से / रणजीत

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:43, 30 जून 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जाओ !
ओ मेरे शब्दों के मुक्ति-सैनिको, जाओ !
जिन-जिन के मन का देश अभी तक है ग़ुलाम
जो एकछत्र सम्राट स्वार्थ के शासन में पिस रहे अभी हैं सुबह-शाम
घेरे हैं जिनको रूढ़ि-ग्रस्त चिन्तन की ऊँची दीवारें
जो बीते युग के संस्कारों की सरमायेदारी का शोषण
सहते हैं बेरोकथाम
उन सब तक नई रोशनी का पैग़ाम आज पहुँचाओ
जाकर उनको इस क्रूर-दमन की कारा से छुड़वाओ !
जाओ,
ओ मेरे शब्दों के मुक्ति-सैनिको, जाओ !