http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6_%E0%A4%9D%E0%A5%82%E0%A4%A0_%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82_%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%A4%E0%A5%87_/_%E0%A4%93%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E2%80%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%BF&feed=atom&action=historyशब्द झूठ नहीं बोलते / ओमप्रकाश वाल्मीकि - अवतरण इतिहास2024-03-28T20:57:45Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6_%E0%A4%9D%E0%A5%82%E0%A4%A0_%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82_%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%A4%E0%A5%87_/_%E0%A4%93%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E2%80%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%BF&diff=117877&oldid=prevअनिल जनविजय: नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ओमप्रकाश वाल्मीकि |संग्रह=सदियों का संताप / ओम…2011-05-20T21:19:12Z<p>नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ओमप्रकाश वाल्मीकि |संग्रह=सदियों का संताप / ओम…</p>
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{{KKRachna<br />
|रचनाकार=ओमप्रकाश वाल्मीकि<br />
|संग्रह=सदियों का संताप / ओमप्रकाश वाल्मीकि<br />
}}<br />
{{KKCatKavita}}<br />
<poem><br />
मेरा विश्वास है<br />
तुम्हारी तमाम कोशिशों के बाद भी<br />
शब्द ज़िन्दा रहेंगे<br />
समय की सीढ़ियों पर<br />
अपने पाँव के निशान<br />
गोदने के लिए<br />
बदल देने के लिए<br />
हवाओं का रुख<br />
<br />
स्वर्णमंडित सिंहासन पर<br />
आध्यात्मिक प्रवचनों में<br />
या फिर संसद के गलियारॉं में<br />
अख़बारों की बदलती प्रतिबद्धताओं में<br />
टीवी और सिनेमा की कल्पनाओं में<br />
कसमसाता शब्द<br />
जब आएगा बाहर<br />
मुक्त होकर<br />
सुनाई पड़ेंगे असंख्य धमाके<br />
विखण्डित होकर<br />
फिर –फिर जुड़ने के<br />
<br />
बंद कमरों में भले ही<br />
न सुनाई पड़े<br />
शब्द के चारों ओर कसी<br />
साँकल के टूटने की आवाज़<br />
<br />
खेत –खलिहान<br />
कच्चे घर<br />
बाढ़ में डूबती फ़सलें<br />
आत्महत्या करते किसान<br />
उत्पीडित जनों की सिसकियों में<br />
फिर भी शब्द की चीख़<br />
गूँजती रहती है हर वक़्त<br />
<br />
गहरी नींद में सोए<br />
अलसाए भी जाग जाते हैं<br />
जब शब्द आग बनकर<br />
उतरता है उनकी साँसों में<br />
<br />
मौज़-मस्ती में डूबे लोग<br />
सहम जाते हैं<br />
<br />
थके-हारे मज़दूरों की फुसफुसाहटों में<br />
बामन की दुत्कार सहते<br />
दो घूँट पानी के लिए मिन्नतें करते<br />
पीड़ितजनों की आह में<br />
ज़िन्दा रहते हैं शब्द<br />
जो कभी नहीं मरते<br />
खड़े रहते हैं<br />
सच को सच कहने के लिए<br />
<br />
क्योंकि,<br />
शब्द कभी झूठ नहीं बोलते !<br />
<br />
4 मई,2011<br />
</poem></div>अनिल जनविजय