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शब्द / छवि निगम

तो बकौल आइन्स्टीन
पदार्थ न मरता है, न बनता
ऊर्जा तक बन सकता है इक निरा पत्थर..
अच्छा!
शब्दों को क्यों नही बूझा किसी ने?
वो भी तो नहीं बनते, मिटते भी नहीं
कहीं कुछ नया नहीं होता कभी कहने सुनने को।
सदियों पहले की कहा सुनी
कान के पर्दे से टकराते रहती है देखो आज भी ..
हीर सोहनी लैला जूलियट.. हाँ, सुनती हूँ तुम्हें सच
समा कर तुम में, मीरा -सी जी लेती हूँ
उफ्फ़!
देह को जिंदा कर जाते हैं, फिर मुर्दा भी
सुकरात के प्याले में घुले आह ये शब्द...
कहाँ बंधेंगे!
पारे की बूँद से ढुलक जाते
कभी पहाड़ हो जाते, किसी मांझी के घन का इंतज़ार करते करते
प्यार के प्यास की भाप कभी उड़ जाती
कभी बारिश की नमी सी जम जाती इन्हीं शब्दों मे
सुनो!
बदल दो न प्यार को भी आइंस्टीन के 'मैटर 'में।
शब्दों से उसे जमा लूँ
पिघला भी लूँ कभी मैं
ठंडे लावे से तर कर लूं रूह अपनी।
बस ये बावरा दिल अब बुद्ध हो ले
बेलौस निकल पड़े, बंजारे शब्दों की राह खोजें