भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"शरद की साँझ के पंछी / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=अज्ञेय | |रचनाकार=अज्ञेय | ||
− | }} | + | }}{{KKAnthologySardi}} |
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> |
01:17, 1 अप्रैल 2011 का अवतरण
ऊपर फैला है आकाश, भरा तारों से
भार-मुक्त से तिर जाते हैं
पंछी डैने बिना फैलाये ।
जी होता है मैं सहसा गा उठूँ
उमगते स्वर
जो कभी नहीं भीतर से फूटे
कभी नहीं जो मैं ने -
कहीं किसी ने - गाये ।
किन्तु अधूरा है आकाश
हवा के स्वर बन्दी हैं
मैं धरती से बँधा हुआ हूँ -
हूँ ही नहीं, प्रतिध्वनि भर हूँ
जब तक नहीं उमगते तुम स्वर में मेरे प्राण-स्वर
तारों मे स्थिर मेरे तारे,
जब तक नही तुम्हारी लम्बायित परछाहीं
कर जाती आकाश अधूरा पूरा ।
भार-मुक्त
ओ मेरी संज्ञा में तिर जाने वाले पंछी
देख रहा हूँ तुम्हें मुग्ध मैं ।
यह लो :
लाली से में उभर चम्पई
उठा दूज का चाँद कँटीला ।