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शराबी की सूक्तियाँ-51-60 / कृष्ण कल्पित

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इक्यावन

प्रेम की तरह
शराब पीने का
नहीं होता कोई समय

यह समयातीत है।

बावन

शराब सेतु है
मनुष्य और कविता के बीच।

सेतु है शराब
श्रमिक और कुदाल के बीच।

तिरेपन

सोचता है जुलाहा
काश!
करघे पर बुनी जा सकती शराब।

चव्वन

कुम्हार सोचता है
काश!
चाक पर रची जा सकती शराब।.

पचपन

सोचता है बढ़ई
काश!
आरी से चीरी जा सकती शराब।

छप्पन

स्वप्न है शराब!

जहालत के विरुद्ध
ग़रीबी के विरुद्ध
शोषण के विरुद्ध
अन्याय के विरुद्ध

मुक्ति का स्वप्न है शराब!

क्षेपक

पाण्डुलिपि की हस्तलिपि भले उलझन भरी हो, लेकिन उसे कलात्मक कहा जा सकता है। इसे स्याही झरने वाली क़लम से जतन से लिखा गया था। अक्षरों की लचक, मात्राओं की फुनगियों और बिन्दु, अर्धविराम से जान पडता है कि यह हस्तलिपि स्वअर्जित है। पूर्णविराम का स्थापत्य तो बेजोड़ है -- कहीं कोई भूल नहीं। सीधा सपाट, रीढ की तरह तना हुआ पूर्णविराम। अर्धविराम ऐसा, जैसा थोड़ा फुदक कर आगे बढ़ा जा सके।

रचयिता का नाम कहीं नहीं पाया गया। डेगाना नामक क़स्बे का ज़िक्र दो-तीन स्थलों पर आता है जिसके आगे जिला नागौर, राजस्थान लिखा गया है। सम्भवतः वह यहाँ का रहने वाला हो। डेगाना स्थित 'विश्वकर्मा आरा मशीन' का ज़िक्र एक स्थल पर आता है -- जिसके बाद खेजड़े और शीशम की लकड़ियों के भाव लिखे हुए हैं। बढ़ईगिरी के काम आने वाले राछों (औजारों) यथा आरी, बसूला, हथौड़ी आदि का उल्लेख भी एक जगह पर है। हो सकता है वह ख़ुद बढ़ई हो या इस धन्धे से जुड़ा कोई कारीगर। पाण्डुलिपि के बीच में 'महालक्ष्मी प्रिण्टिंग प्रेस, डीडवाना' की एक परची भी फँसी हुई थी, जिस पर कम्पोजिंग, छपाई और बाईण्डिंग का 4375 (कुल चार हज़ार तीन सौ पचहत्तर) रुपए का हिसाब लिखा हुआ है. यह सम्भवतः इस पाण्डुलिपि के छपने का अनुमानित व्यय था -- जिससे जान पड़ता है कि इस 'कितबिया' को प्रकाशित कराने की इच्छा इसके रचयिता की रही होगी।

रचयिता की औपचारिक शिक्षा-दीक्षा का अनुमान पाण्डुलिपि से लगाना मुश्किल है -- यह तो लगभग पक्का है कि वह बी० ए०, एम० ए० डिग्रीधारी नहीं था। यह जरूर हैरान करने वाली बात है कि पाण्डुलिपि में अमीर खुसरो, कबीर, मीर, सूर, तुलसी, ग़ालिब, मीरा, निराला, प्रेमचन्द, शरतचन्द्र, मण्टो, फ़िराक़, फ़ैज़, मुक्तिबोध, भुवनेश्वर, मजाज़, उग्र, नागार्जुन, बच्चन, नासिर, राजकमल, शैलेन्द्र, ऋत्विक घटक, रामकिंकर, सिद्धेश्वरी देवी की पँक्तियाँ बीच-बीच में गुँथी हुई हैं। यह वाकई विलक्षण और हैरान करने वाली बात है। काल के थपेड़ों से जूझती हुई, होड़ लेती हुई कुछ पँक्तियाँ किस तरह रेगिस्तान के एक 'कामगार' की अन्तरात्मा पर बरसती हैं और वहीं बस जाती हैं -- जैसे नदियाँ हमारे पड़ोस में बसती हैं।

कृ.क.
पटना, 13 फ़रवरी 2005
बसन्त पंचमी

सत्तावन

कहीं भी पी जा सकती है शराब

खेतों में खलिहानों मे
कछार में या उपान्त में
छत पर या सीढ़ियों के झुटपुटे में
रेल के डिब्बे में
या फिर किसी लैम्पपोस्ट की
झरती हुई रोशनी में

कहीं भी पी जा सकती है शराब।

अठावन

कलवारी में पीने के बाद
मृत्यु और जीवन से परे
वह अविस्मरणीय नृत्य
'ठगिनी क्यों नैना झमकावै'

कफ़न बेच कर अगर
घीसू और माधो नहीं पीते शराब
तो यह मनुष्यता वंचित रह जाती
एक कालजयी कृति से।

उनसठ

देवदास कैसे बनता देवदास
अगर शराब न होती।

तब पारो का क्या होता
क्या होता चन्द्रमुखी का
क्या होता
रेलगाड़ी की तरह
थरथराती आत्मा का?

साठ

उन नीमबाज़ आँखों में
सारी मस्ती
किसकी-सी होती
अगर शराब न होती!

आँखों में दम
किसके लिए होता
अगर न होता सागर-ओ-मीना?