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शराब ओ शेर के साँचे में ढल के आई है / 'शमीम' करहानी

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शराब ओ शेर के साँचे में ढल के आई है
ये शाम किस की गली से निकल के आई है

समझ रहा हूँ सहर के फ़रेब-ए-रंगीं को
नया लिबास शब-ए-ग़म बदल के आई है

तिरे क़दम की बहक है तिरी क़बा की महक
नसीम तेरे शबिस्ताँ से चल के आई है

वफ़ा पे आँच न आती अगर तुम कह देते
ज़बाँ तक आज जो इक बात चल के आई है

सजी हुई है सितारों से मय-कदे की फ़ज़ा
कि रात तेरे तसव्वुर में ढल के आई है

ब-एहतियात हमारी तरफ़ उठी है निगाह
लबों पे मौज-ए-तबस्सुम सँभल के आई है

हमारी आह हमारे ही दिल की आह नहीं
न जाने कितने दिलों से निकल के आई है

सहर तक आ गई शम्अ ता-बा परवाना
मगर हरारत-ए-ग़म से पिघल के आई है

मिरी निगाह-ए-तमन्ना का अक्स हो न ‘शमीम’
किसी के रूख़ पे जो सुर्ख़ी मचल के आई है