भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शराब ओ शेर के साँचे में ढल के आई है / 'शमीम' करहानी
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:05, 17 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='शमीम' करहानी }} {{KKCatGhazal}} <poem> शराब ओ शेर ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
शराब ओ शेर के साँचे में ढल के आई है
ये शाम किस की गली से निकल के आई है
समझ रहा हूँ सहर के फ़रेब-ए-रंगीं को
नया लिबास शब-ए-ग़म बदल के आई है
तिरे क़दम की बहक है तिरी क़बा की महक
नसीम तेरे शबिस्ताँ से चल के आई है
वफ़ा पे आँच न आती अगर तुम कह देते
ज़बाँ तक आज जो इक बात चल के आई है
सजी हुई है सितारों से मय-कदे की फ़ज़ा
कि रात तेरे तसव्वुर में ढल के आई है
ब-एहतियात हमारी तरफ़ उठी है निगाह
लबों पे मौज-ए-तबस्सुम सँभल के आई है
हमारी आह हमारे ही दिल की आह नहीं
न जाने कितने दिलों से निकल के आई है
सहर तक आ गई शम्अ ता-बा परवाना
मगर हरारत-ए-ग़म से पिघल के आई है
मिरी निगाह-ए-तमन्ना का अक्स हो न ‘शमीम’
किसी के रूख़ पे जो सुर्ख़ी मचल के आई है