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शर्त / राकेश पाठक

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क्यूँ पूछते हो इतना अटपटा सा
सवाल मुझसे ???
क्यूँ बार-बार रख देते हो
एक नयी शर्त ?
मेरे तुम्हारे हमारे बीच
रिश्तों की एक नदी भी बहती है ?
पर
हर बार एक नयी जिद्द ???
क्या यह रिश्तों की तल्खी से उपजा
कोई रिसता हुआ मवाद तो नहीं ???
तेरे यह सवाल ?
तेरे यह शर्त ?
और वह जिद्द भी ?
बौराया हुआ "मान" कब का ढ़ल चूका
और थोपी गयी पूर्वजों की प्रतिष्ठा भी
वजूद की धमनियों में
प्रायश्चित का कोई रक्त संचार नहीं दौड़ता कभी ?
जो हर बार आँखे उलीच
दिखा देते हो अपना वहशीपना !
इतनी कमजोर भी नहीं मैं
कि टूट जाउंगी
और छोड़ दूंगी तुझे
लीलावती की अरण्य में अकेला
अपनी मनमर्जी के लिए
हर शाम के साथ औंध जाती हूँ मैं
और सुलग उठता है मेरा वजूद
तन मन से आग का भभूका फुट पड़ता
मेरे अन्दर रोज ही
नारी की शौर्य की परीक्षा में
पराक्रम का रौरव जब दिखेगा न !
समूल सर्वनाश कर देगा तेरा
और चूर हो जायेगा तेरा वह दर्प
जिसे अपनी पूंजी मान
उगाही करते रहे हो अब तक !!