Last modified on 27 अक्टूबर 2015, at 01:51

शर्म की बात है यह गगन के लिए / श्यामनन्दन किशोर

जुगनुओं की चमक चाँदनी लग रही,
इस तरह से यहाँ घिर अँधेरा रहा।

विषधरों से जहाँ इस तरह भर गया,
व्यक्ति सबसे बड़ा दिख सपेरा रहा।

सूर्य के सारथी को लगी कँपकँपी
खून क्या दौड़ता अब रगों में नहीं।

शूल से फूल चुभने अधिक अब लगे-
आज भाटे बिना ज्वार के सब कहीं!

फैल स्याही गयी रात की इस तरह,
मुँह किरण से छुपाता सवेरा रहा।

कौन साथी तुम्हें जो नहीं छोड़ दे,
राह वीरान में, बीच मझधार में-

प्यार के भी गले में पड़ा ढोल है,
आस्था बिक रही बीच बाजार में!

कौन गिरवी नहीं जो पड़ेगा यहाँ,
रक्षकों का जहाँ दल लुटेरा रहा।

याचकों ने बदल रूप ऐसा लिया,
घूमते हाथ दाता पसारे हुए-

जो वजनदार थे, लि गये धूल में,
जो कि हलके उड़े, जा सितारे हुए!

चेहरे का बदल रंग उसका गया,
कल तलक जो स्वयं ही चितेरा रहा।

बदलियाँ तो घिरीं मेघ बरसे नहीं-
शर्म कीबात है यह गगन के लिए,

क्या जमाना अजब देखने को मिला-
आज मुर्दे रहे लड़ कफ़न के लिए!

इस तरह से हुए आज हम एक हैं,
दर्द तेरा रहा, गीत मेरा रहा।

(23.7.84)