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शर्म / रूपम मिश्र

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मुझसे बारहां पूछा जाता है — तुम्हें शर्म नहीं आती
तब मैं सोचने लगती हूँ पिछली बार मुझे कब शर्म आई थी
हाँ, याद तो है, बहुत बार बहुत शर्म आई
जब मेरे ही घर में मेरे एक परिचित का कुछ ऐसा स्वागत होता है कि
मेरे घर के बर्तन में मेरे घर का कुत्ता पानी पी लेता है
पर उसको अछूत बर्तन में पिलाया जाता है
मुझे तब मनुष्य होने पर भी शर्म आती है

जब वो कहता है हम लोग कुत्तों से बद्दतर जाति हैं
और ठठाकर हँस देता है
मुझे तब भी बहुत शर्म आती है
जब तथाकथित अपने अपने नाम के आगे बड़ी जाति का ठीहा लगाकर
मर्यादा के पर्याय की आड़ लेकर नंगे होते हैं
और ख़ुद के गर्भ में आने की प्रक्रिया को दूसरों पर आरोपित करके तुष्ट होते हैं।

शर्म आती है मुझे खुद के उद्धारक कुल में पैदा होने पर
सम्भ्रान्त कुलीनता का बोझ ढोने पर
तुम नहीं सह पाओगे मेरी शर्म को
घृणा से पागल हो जाओगे
और अपनी गाली से सीखी भाषा को और पैनी करोगे ।