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शव-यात्रा का मृत संगीत / राजकमल चौधरी

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स्मृति में महाप्राण निराला को समर्पित

समूचा नगर पेट्रोल की गन्ध में डूबा हुआ...
आग लगती है। धड़ाके से ग्लोब फट जाता है,
आग लगती है ।
कहीं कोई सायरन नहीं बजता...
मैं पेट्रोल में
आग में
ग्लोब में
अपने अकेलपन में
तुम्हारी मृत्यु के अपराध में, क़ैद हूँ । क़ैदख़ाने में
दरवाज़ा नहीं है;
दरवाज़ा इस ग्लोब में कभी नहीं था ।
आओ, पहले हम बहस करें कि क्यों नहीं था दरवाज़ा
पहले हम तय करें कि यह क़ैदख़ाना किसने बनाया
फ़ैसला करें कि दरवाज़े क्या होते हैं
इतनी ईंटें कहाँ से आईं
लोहे की सलाख़ें कौन ले आया
दीवारें धीरे-धीरे ऊपर उठती गई किस तरह ?
आवश्यक है तर्क-वितर्क
फिर, यह कि वाक्य-व्यवस्था हो, विषय हो
सिद्धान्त बनें, अपवाद गढ़े जाएँ, व्याख्याएँ, भाष्य,
फिर, निर्णय हो
कि पहले क्यों नहीं थे दरवाज़े
और, अब क्यों नहीं हैं ?

जीवन, और जीवन में लगातार पराजय
पराजय, और उपहास के बाद भी हम जीवित हैं ।
तुम अपराजेय थे, इसीलिए तो जीवित नहीं थे, मृत थे
मृत थे, किन्तु अमृत थे
हम तुम्हारे उत्तराधिकारी विष भी नहीं हैं ।

ज्ञान अपनी सम्पूर्णता में प्रकृतिगत छल है
सम्बल है, हम सबका एक मात्र अज्ञान ।
वह भी सम्भव नहीं है;
अबोधत्व टूट-बिखर जाता है...
आदमी हो जाता है कृतवीर्य
क्षुधा-ज्वाला में अपना ही तन खाता है ।
और, अबोधत्व सम्भव नहीं है।
अपनी कुरूपता का
विकलांगता का
विषदाह का हर आदमी है जानकार ।
हर आदमी के सामने है आदमक़द आईना,
अपने सामने वह ख़ुद है !
और, दुखी है ।
मृत है !
तुम इसीलिए अमृत थे कि तुम्हारे सम्मुख
शीशा नहीं था
अखण्डिता (अथवा सहस्रखण्डिता !) प्रकृति थी
जलवाहक मेघ थे
गंगा थी
फूल, वृक्ष, इन्द्रधनु, धूप, रूपसी सन्ध्या, वसन्त,
जूही की कलिकाएँ...
तुम्हारे सम्मुख शीशा नहीं था
स्वप्न था !

हमारी पराजय का प्रथम कारण है नैतिकता
धर्म हमारे सामूहिक अपराध की प्रथम स्वीकृति
अन्न-वस्त्र हमारे लिए प्रथम दण्ड
ज्ञान हमारा प्रथम अभाव...
और ईश्वर ?
हमारी असहायता के सिवा और क्या ?
हम पराजित हैं
अपराधी हैं
दण्डित हैं —
और, हमारे कन्धों पर तुम्हारा शव है ।
नींद में या अनिद्रा में स्तब्ध है समूचा नगर
चौराहों पर बुझे हुए लैम्प-पोस्ट
पार्कों में बिछी हुई घास पर अनगिनत लाशें
पत्थर के स्तम्भों पर ब्रोंज की मूर्तियाँ
किताब घरों पर ताले पड़ गए हैं
अदालतों की कुर्सियों पर बैठे हैं लोहे के बुत !
लोहे की लगातार बन्दिशें, लोहे की दीवारें
हर घर किसी न किसी क़ब्र का दरवाज़ा है
जो अन्दर जाने के लिए खुलता है
बाहर जाने के लिए नहीं
कभी नहीं

अब सभी लोग हमें पागल कहते हैं
कि हम कन्धों पर हो रहे हैं इतिहास
कि हम दिमाग में लादे हुए हैं
एक अर्थहीन परम्परा
भाव का उपयोगविहीन विस्तार
शब्द का व्यवसायविहीन, लाभविहीन व्यापार !
कविता का क्या होगा ?
गगन में इतने स्वर्ण-तारक तो जड़े ही हैं
वैसे भी तो उपयोगी है अन्धकार
ज्योतिपिता सविता का क्या होगा ?
रात काटने के लिए चाहिए कहीं एक पड़ाव
मांसपिण्डों का जलता हुआ अलाव
चावल के चन्द दाने
क़तरा भर मक्खन
कहवे का गर्म प्याला
कभी-कभी शराब
बीमे की पॉलिसी
दो-एक अदद बच्चे
एक बिस्तरा और नींद !
कविता का क्या होगा?
ज्योतिपिता सविता का क्या होगा ?
क्या होगा आँखों में यदि नहीं सपने,
हम आदमी हैं यों ही उम्र काट लेते हैं
तेज़ मशीनों की तेज़ धड़धड़ाहट में

हम आदमी हैं यों ही उम्र काट लेते हैं ।
बीमार बच्चों की कमज़ोर, बेमतलब तुतलाहट में
हम आदमी हैं
दूसरों की दौलत का हिसाब लिखते हैं
और डूबे रहते हैं
अपने क़र्ज़ के समुन्दर में !
दफ़्तर की टाइपिस्ट लड़कियाँ अकारण खिलखिलाती हैं
बन्द केबिन में बैठा मालिक अकारण ग़ुस्सा हो जाता है
अकारण नौकरी छोड़ देता है टेलीफ़ोन-ऑपरेटर
कारख़ाने के मज़दूर अकारण करते हैं हड़ताल
अकारण बोनस नहीं मिलता है
अकारण ट्राम उलट जाती है
अकारण जमा हो जाती है चौरस्तों पर भीड़
अकारण मैदानों में भाषण दिए जाते हैं
अकारण छपते हैं अख़बार
सेक्रेटेरियट-बिल्डिंग की छत से कूदकर
अकारण कई आदमी आत्महत्या कर लेते हैं...
कारण की खोज में हम क्यों छटपटाएँ
क्यों नहीं किसी चायख़ाने में
या सिनेमाघर में
घुसकर
गर्म चाय पीते रहें
देखते रहें गर्म औरतें ?
...रात काटने के लिए चाहिए कहीं भी पड़ाव
मांसपेशियों का हल्का-सा तनाव !
क्या चाहता था ‘गोएथे' का ‘डॉक्टर फाउस्ट'
तलस्तोय की ‘अन्ना' क्यों ट्रेन से कट गई
क्यों शेली सागर में डूब गया
क्यों स्टीफ़ेन ज्विग ने
मयकोवस्की ने
ख़ुदकुशी कर ली
क्यों पागल हो गया वान गॉख
या नज़रुल इस्लाम
या निराला ?
— हमें जानने की फ़ुर्सत नहीं है
कि हम आदमी नहीं हैं हुजूम हैं
जुलूस हैं !

और, अब पुनः वसन्त आ गया है अनजाने :
वसन्त की नदी में जल-प्लावन
ज्वार में बहता हुआ स्मरण का निर्माल्य
त्यक्त फूलों में असम्भव सुगन्धि ...
और, हम इस सुगन्धि के उत्तराधिकारी हैं
वंशधर हैं
और, हमारे कन्धों पर तुम्हारा अ-मृत शव है
और, पेट्रोल की गन्ध में डूबा हुआ है समूचा नगर
और, आग लगती है
और, धड़ाके से फट जाता है ग्लोब
कविताएँ
शब्द
अर्थ
ध्वनियाँ, शीशे के टुकड़ों की तरह
बिखर जाती हैं...
मगर कहीं कोई सायरन नहीं बजता है ।
कहीं कोई अरथी नहीं सजती है
कहीं कोई शोक-गीत गूँजता नहीं है
कहीं कुछ नहीं होता !
हम कन्धों पर तुम्हारी लाश लिए चलते रहते हैं ।
चलते रहते हैं ।
और हमारे पीछे भीड़ चलती रहती है ।

भीड़ और कहकहे, और फ़िल्मी गाने, और फ़ोहश मज़ाक़
और पराजय, और अपराध, और दण्ड
और ईश्वर !
तुम्हारा प्रथम अपराध यही था कि तुम स्रष्टा थे
हमारा प्रथम अपराध यही है
कि हम तुम्हारी सृष्टि को समर्पित हैं
कि हम गर्वित हैं
कि चींटियों की क़तारें
कल्प-पुरुष की सुगन्धि नहीं पहचानती हैं
और तुम्हें कल्पतरु नहीं मानती हैं ।