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शहनाइयों के बारे में बिस्मिल्लाह खान / मंगलेश डबराल

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क्या दशाश्वमेध घाट की पैड़ी पर
मेरे सँगीत का कोई टुकड़ा अब भी गिरा हुआ होगा ?
क्या मेरा कोई सुर कोमल रिखभ या शुद्ध मध्यम
अब भी गँगा की धारा में चमकता होगा ?
बालाजी के कानों में क्या अब भी गूँजती होगी
मेरी तोडी या बैरागी भैरव ?
क्या बनारस की गलियों में बह रही होगी मेरी कजरी
देहाती किशोरी की तरह उमगती हुई ?
मेरी शहनाइयों का कोई मज़हब नहीं था
सुबह की इबादत या शाम की नमाज़
वे एक जैसी कशिश से बजती थीं
सुबह-सुबह मैं उनसे ही कहता था — बिस्मिल्लाह
फिर याद आता था — अरे, अपना भी तो है यही नाम — बिस्मिल्लाह ।

याद नहीं, कहाँ-कहाँ गया मैं, ईरान-तूरान, अमेरिका-यूरोप
हर कहीं बनारस और गँगा को खोजता हुआ
मज़हब और मौसीक़ी के बीच सँगत कराता हुआ
मैंने कहा — कैसे बस जाऊँ आपके अमेरिका में
जहाँ न गंगा है, न बनारस, न गंगा-जमुनी तहज़ीब
जिन्होंने मुझसे कहा इस्लाम में मौसिकी हराम है
उन्हें शहनाई पर बजाकर सुनाया राग भैरव में अल्लाह
और कर दिया हैरान,
वह सुर ही है जिससे आदमी पहुँचता है उस तक
जिसे ख़ुदा कहो या ईश्वर कहो या अल्लाह
अरे, अगर इस्लाम में है मौसीक़ी हराम
तो कैसे पैदा हुए पचासों उस्ताद
जिनके नाम से शुरू हुए हिन्दुस्तानी संगीत के घराने तमाम
अब्दुल करीम, अब्दुल वहीद, अल्लादिया, अलाउद्दीन,
मँजी, भूरजी, रजब अली, अली अकबर, विलायत, अमीर ख़ान, अमजद
कहाँ तक गिनाएँ नाम ।

मेरी निगाहों के सामने बदलने लगा था बनारस
भूमण्डलीकरण एक प्लाटिक का नाम था
जो जम रहा था जटिल तानों जैसी गलियों में
एक बेसुरापन छा रहा था हर जगह
यह बनारस बाज़ के ख़ामोश होने का दौर था
कत्थक के थमने और ठुमरी की लय के टूटने का दौर
टूटी ही रही मेरे नाम की सड़क मेरे नाम की तख़्ती
एक शोर उठा — बनारस अब क्योतो बन रहा है
और उसके साथ गिरे हुए मलबे में दबने लगी सुबहे-बनारस
एक दिन इसी क्योतो में मेरी शहनाइयाँ नीलाम हुईं
उन्हें मेरे अपने ही पोते नज़रे हसन ने चुराया
और सिर्फ़ एक महँगा मोबाइल ख़रीदने की ख़ातिर
बेच दिया फ़क़त 17000 रुपये में
उनकी चान्दी गला दी गई, लकड़ी जला दी गई
उनके सुर हुए सुपुर्दे-ख़ाक
अच्छा हुआ इस बीच मैं रुख़सत हो गया
बनारस अब कहाँ थी मेरे रहने की जगह ।