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"शहर आदिल है तो मुंसिफ़ की ज़रूरत कैसी / संजय मिश्रा 'शौक'" के अवतरणों में अंतर

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जिसमें मजदूर को दो वक़्त की रोटी न मिले  
 
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08:58, 21 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण

                



शहर आदिल है तो मुंसिफ की जरूरत कैसी
कोई मुजरिम ही नहीं है तो अदालत कैसी

काम के बोझ से रहते हैं परीशां हर वक्त
आज के दौर के बच्चों में शरारत कैसी

हमको हिर-फिर के तो रहना है इसी धरती पर
हम अगर शहर बदलते हैं तो हिजरत कैसी

मैंने भी जिसके लिए खुद को गंवाया बरसों
वो मुझे ढूँढने आ जाए तो हैरत कैसी

जिसमें मजदूर को दो वक़्त की रोटी न मिले
वो हुकूमत भी अगर है तो हुकूमत कैसी