भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शहर कमाकर/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

Kavita Kosh से
Sheelendra (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:22, 13 मार्च 2012 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शहर कमाकर जब हम लौटे
भैया अपने गाँव
बदली बदली हमें दिखाई
दी बरगद की छाँव ।
 
भूले लोय,कबड्डी सिर पर
चढ़ा क्रिकेट का भूत
दिन-दिन घूम रहे हाथों में
बल्ला थामे पूत
राम लक्ष्मण में प्रधान पद
का हो रहा चुनाव ।

भूल गए हुक्के की गुड़गुड़
बढ़ा चिलम का ज़ोर
बलदाऊ पी-पी शराब की
बोतल भे कमज़ोर,
पूरब टोला-पश्चिम टोला
में है बड़ा तनाव ।

फागुन आया चला गया पर
बजीं न झांझें-ढोल ।
हलो-हाय के आगे फीके
पाँय लगूँ के बोल
एक दूसरे का हर कोई
काट रहा है पाँव ।
 
बदली-बदली हमें दिखाई
दी बरगद की छाँव ।