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शहर पनप रहा है / विजय चोरमारे / टीकम शेखावत

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रात भर के सफ़र से भारी हो गई हैं आँखे
सुबह तड़के बस-अड्डा है मुरझाया हुआ
बाहर निकलते ही मिलता है शहर
नया नवेला
जैसे आया है
अभी अभी
माँ के गर्भ से

कोई भी कर्कश हॉर्न नहीं किरकराता
ब्रेक भी नहीं लगता कचकचा के
मेले में भटके बच्चे की
जैसे माँ बने आसपास की हर औरत
ऐसा अनुभव करता है हर ड्राईवर
कि कहीं अलसुबह
शहर की नींद न टूट जाए !

यह मेरा ही शहर है
या फ़िर
सुबह-सुबह शहर आया हैं सपने में?
सुबह हो गई है
बिना किसी मुर्गे की बाँग के
सूर्योदय की ओर रेंगकर बढ़ रहा है दिन
पुलिसवाले भी उठा रहें हैं लुत्फ़
गरमागरम चाय का, हँसी-ठिठोली के साथ

सूर्योदय के बाद शहर ले लेगा करवट
तब नहीं नज़र आएँगे ये दृश्य
चिड़चिड़ाहट में सोई पत्नी की और
चोर-पुलिस खेलने के इन्तज़ार में
थक कर सो गई बच्ची की
याद भी नहीं आएगी
वरिष्ठ अधिकारियों के दबाव के सामने

कवि
प्रेमी जीव
किसान
पुलिस
आत्महत्या करने वाले घटकों की
सूची बढती ही जा रही हैं दिन-ब-दिन

निर्दोष को बचा नहीं सके
इसलिए वक़ील भी करेंगे क्या आत्महत्या?
विद्यार्थियोंके फेल होने पर अध्यापक,
या फ़ैसला ग़लत सुनाया इसलिए
न्यायाधीश भी चढ़ पाएँगे सूली पर?

भोर में मैंने जिस शहर को देखा
उसके अवशेष भी नज़र नहीं आ रहे
सूरज के सिर पर आ जाने पर
शहर चारों ओर से चढ़ रहा है देह पर

भयंकर बाढ़ का पानी
देहलीज़ तक आ गया है
बरसात रुकने पर भी
पानी कम नहीं हो रहा
बाँध टूटने के खतरे की सूचना दी है
सरकारी व्यवस्था ने
न टूटे तो अच्छी बात है
टूट भी गया तो चिन्ता की कोई बात नहीं
चेतावनी दी गई थी संकट की
इसलिए जवाबदेही से बचा जा सकता हैं

पानी पर तैरता शहर बिल्डरों का
ग़ुलाम है पैसेवालों का
नौका जो कल डूबी थी
उसमे सब गरीब लोग थे
लाइफ़-जैकेट पहने नेताओं की नौका
सकुशल किनारे पहुँच गई
बाढ़पीड़ितों के लिए लाइफ़-जैकेट का प्रस्ताव
मन्त्रालय में धूल खा रहा है

इन पुतलों को रँगा गया है
या इनके मुँह पर पोत दी गई है कालिख़
एहतियात के लिए !
ये राजा महान है ग़रीबो का रखवाला
चौड़ी छाती वाला
माफ़ कीजिए, महाराज
मेरे हाथ आपके गले तक नहीं पहुँच पा रहे
सो, इस जयन्ती पर दूर से ही शुभकामनाएँ
जब तक नहीं करता आपका अपमान कोई
तब तक चैनलवाले नहीं देखेंगे आपकी ओर
राजघराने में पैदा होने के बावजूद
आप हो मीडिया की दुनिया से बेख़बर
कैसे बनेगी आपकी इमेज?

आपके लिए नहीं लगाए जाते
हर-हर महादेव के नारे
आपके लिए खौलता नहीं किसी का भी ख़ून
आपकी जयन्ती-पुण्यतिथि पर पुलिस
समयानुसार ड्यूटी कर घर जाती है
आपका यह कल्याणकारी राज्य
कब का डूब चूका अन्धेरे में
और बाज़ार में
भयानक भीड़ उमड़ आई
आकाशदीप ख़रीदने की खातिर

तिलक लगाए हुए दाढ़ीधारी
घूम रहे हैं पुलिस बनकर
तालाब के किनारों पर,
यहाँ प्रेम करने पर पाबन्दी है !
बस कर सके बात
इस दिल की उस दिल तक
केवल इतना सा एकान्त मिलेगा
इस शहर में?
वर्ना घुट-घुट कर मर जाएँगे कितने ही
हिंसा का होगा नंगा नाच शहर में !

यह शहर बन पाए एक बग़ीचा
प्रेमियों की मुक्त मुलाक़ातों की खातिर
हो जिसके ह्रदय में प्रेम
बस, उसके लिए ही खुले इसका दरवाज़ा

शहर
महाप्रलय में डूबता
दंगा-फ़साद में जलता
मैटनी से लेकर
आधी रात तक
बारा से बारा
खिलाते चारा
हर भूखी चोंच को

मैं रमता रहा तुम्हारे बदनपर — कांधों पर
यहीं बड़ा हुआ, जीया, जीता रहा
घुसेड़ता रहा मेरी जड़ें
भीतर बहुत भीतर
जड़ों को नहीं मिल पा रही है राह
और भीतर जाने के वास्ते
जड़ों की ताक़त कम पड़ रही है
या
पत्थर ज़्यादा मजबूत है?
अनुमान लगाना मुश्किल है

किन्तु शहर
फैलने लगा है भीतर तक
शरीर के कण-कण में भरा है…
प्रियतमा की यादों की तरह बेचैन, बेकल
जड़ से उखाड़ फेंक नहीं सकते
त्वचा को छील कर भी नहीं कर सकते अलग
केवल ठनक रहा है, दुख भरी स्मृतियों की भाँति

शहर मुझ में पनप रहा है।

मूल मराठी से अनुवाद — टीकम शेखावत