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शहर में जंगल / सुभाष राय

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जंगल चुपचाप

आ गया है शहर तक
आदमी के दिल में
धँसी अपनी जड़ों पर
खड़ा, ख़ून चूसता
निरंकुश फैलता चारों ओर

रास्ते नहीं सूझते
आदमी की बस्तियों में
संकरी होती पगडंडियाँ
खो जाती हैं दीवारों में
कँक्रीट में जमे पुतले
नजर आते हैं इधर-उधर
दौड़ते, भागते, हाँफते हुए

गीदड़ भी हैं यहाँ
वे भाग आए शहरों में
इसलिए नहीं कि
उनकी मौत आई थी
वे मस्त और ज़िंदा हैं यहाँ
उन्होंने अपने नाखून
और बढ़ा लिए हैं
दांत तेज कर लिए हैं
और मरे हुए शेरों की
खालें ओढ़ लीं हैं
वे गुर्राते नहीं
दहाड़ते भी नहीं
चुपचाप धावा बोलते हैं
और चीथड़े कर देते हैं
भूल से भी अकेले
पड़ गये लोगों के
खून इतना मिल जाता है
कि वे भूल चुके हैं
माँस का स्वाद
उन्होंने भुला दिया है
अपना हुआं-हुआं

शेरों से खाली
हो गया है जंगल
या शेर भी गीदड़ों की
शक्ल में ढल गए हैं

भौंकने की आवाज़ें
भी सुनाई पड़ती हैं
घरों में, दफ़्तरों में
गलियों में, सड़कों पर
सीख लिया सबने
हर किसी पर
गुर्राना, दाँत कटकटाना
सबकी पीठ पर
उग आई है पूँछ
लाख जतन करने पर
भी छिपती नहीं
जब भी ज़रूरी होता है
मालिक की खुशी
में हिलती है दुम
और जब भी हिलती है
जाँघिए से बाहर आ जाती है

बड़ी मछलियाँ
खा रही हैं
छोटी मछलियों को
जाल जो स्वप्नजीवी
पुरखों ने बुने थे
छोटे पड़ गए हैं
या कुतर दिये गये हैं
उसमें आकर भी
निकल जाते हैं
लोगों की हड्डियाँ तक
चबा जाने वाले गिद्ध

चहचहाने वाले परिंदे
न जाने कहां खो गए हैं
सुग्गे, तोते, गौरैयां
कहां नज़र आतीं अब
 
आदमी के भीतर
उग आया है
एक भयानक जंगल
सांप जैसी लपलपाती
रहती है उसकी जीभ
शिकार की तलाश में
काले चमगादड़ों की तरह
उसके पैने दांत
मौका पाकर
किसी की भी
नसों में उतर जाते हैं
और चुपचाप पीने

लगते हैं उसका खून

जंगल शहर में आकर
और हरा-भरा हो गया है
पसर रहा है आदमी की
शिराओं में, धमनियों में
नाड़ियों में, दिमागों में

सुनो जंगल का
नीरव अट्टहास
बहरे नहीं हो गए हो
तो कान लगाकर सुनो
यह ख़ामोश आहट है
लूले-लंगड़े गणतंत्र को
चीरकर उगते
भयानक, खूँखार
जंगलराज की