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|रचनाकार=रवीन्द्र दास
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<poem>
शहर में तुम नहीं हो
 
इस समय, वह भी नहीं है इस शहर में
 
अकेला हो रहा हूँ
 
न दोस्त ,न दुश्मन
 
कोई जो तीसरा है
 
मुसाफिर अजनबी है
 
कभी वह पूछता है रास्ता अपनी गरज से
 
मगर चौथा नहीं कोई जो ठहरा हो कहीं भी
 
तनिक आराम ही कर ले
 
ताकि कर लूँ बात मौसम की भले ही
 
सभी हैं व्यस्त
 
गोया मैं किसी को भी नज़र आता नहीं शायद
 
शहर में
 
शहर ख़ुद है,
 
धमकती रौनकें हैं
 
चमकती रौशनी है , इतर की भी महक है
 
नहीं हो तुम शहर में
 
तो मुझको यह शहर सचमुच बड़ा बेनूर लगता है
 
कहो खुदगर्ज या जो भी
 
मगर तुम लौट आओ
 
अकेला हो रहा हूँ मैं
 
बताऊँ क्या के अपनी शक्ल की परछाई देखे हो गया अरसा
 शहर में.....</Poem>
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