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{{KKRachna<br />
|रचनाकार=प्रमोद कौंसवाल<br />
|संग्रह= <br />
}}<br />
<br />
इतने साल हो गए हैं<br><br />
शायद कोई डेढ़ दशक<br><br />
और तभी से बंदर<br><br />
आपस में एक दूसरे के जूं निकालने में ही लगे हैं<br><br />
सामने की तमाम बालकनियों में<br><br />
नाख़ून कतर रही हैं व्याधियां<br><br />
संदूकों और पेटियों में<br><br />
जूते भरकर घर बदल रहे हैं ख़ानाबदोश<br><br />
किसी एक आंख से आंसू नहीं टपक रहा है<br><br />
सड़कों पर लगी आग हो रही फ़ायरिंग<br><br />
कूड़े और सूखे पत्तों का ये शहर इसके बावजूद<br><br><br />
<br />
मैंने सोचा था कोई दशक बाद<br><br />
स्मृतियों का हो जाता है शहर<br><br />
जहां लौटकर दरोदीवार से लिपट जाएं<br><br />
लेकिन यह भटकाव में तब्दील था<br><br />
रात में जो सुनहरा तैरता दिखता<br><br />
कीचड़ होता था असल में<br><br />
धूल-धुएं की बात तो<br><br />
हुई एक बेइलाज़ ज़ख़्म की जैसे ज़माने ज़फ़र की<br><br><br />
<br />
कुछ मशहूर लोग कहां से किन रास्तों से होकर<br><br />
गुज़र जाते हैं मैं बेख़बर रहा<br><br />
सफ़दरजंग के मुर्दाघर के पास खड़े-पड़े<br><br />
तीमारदारी करते हुए<br><br />
ओढ़े अपनी ग़रीबी<br><br />
सिर्फ़ एक कंबल लिए <br><br><br />
<br />
लेकिन हक़ीक़त तो है अपने को पड़ी <br><br />
गरज़ यहां आने की<br><br />
पिछली दफ़ा ग़िरह से छूट गया था सिक्का<br><br><br />
<br />
उसे निकला खोजने<br><br />
रोया बहुत रोया तो आए सारे देवता<br><br />
निकलकर भिड़ने के लिए मुर्दाघर से<br><br></div>Lalit Kumar