भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शहर में शाम / शरद कोकास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घर लौटते मज़दूरों के साथ
खाली टिफ़िन में बैठकर
घर लौटती है शाम

दफ़्तर से लौटती बाबुओं की
साइकिलों पर सवार होकर
अपने शहर लौटती है शाम
देखती है घरों में जलती बत्तियाँ
दुकानों की चकाचौंध
सडकों पर उड़ती धुल
आवारा जानवरों, शराबियों को देखती है

टी० वी० पर नजर गड़ाए
बही-खातों पर सर झुकाए
ख़रीद-फरोख़्त में व्यस्त
इंसानों को देखकर
दुखी होती है शाम

अपनी उपेक्षा पर रोती है शाम
दुखी शाम
स्कूल से घर लौटते बच्चों को देखती है
उन्हें खेलते-खिलखिलाते देखती है
उनके बस्तों में बैठकर घर लौटती है
सारे दुख भूलकर
उनके साथ खेलती है

रसोई में पाव रखती है
गृहणी के हाथों में समाकर
रोटियाँ बेलती है
उसे अब अपना होना
सार्थक लगता है