भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शहर से गुज़रते हुए प्रेम / विजय राही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं जब-जब शहर से गुज़रता हूँ
सोचता हूँ
किसने बसाये होंगे शहर ?

शायद गाँँवों से भागे
प्रेमियों ने शहर बसाये होंगे
ये वो अभागे थे,
जो फिर लौटना चाहते थे गाँव
पर लोक-लाज से ठिठक गये पाँँव

सिर्फ़ यादों में रह गये गाँँव ।

शहर से गुज़रते हुए
मैंं जब भी गाँव को याद करता हूँ
गाँव आकर भर लेता है मेरी बाथ
मैं सोच भी नही सकता
कि छोड़ दूँ उसका हाथ ।

फिर मैं भी रोने लगता हूँ
अपने बिछुड़े गाँव के साथ ।