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शामें, अच्छी हों / देवेन्द्र कुमार

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लाख बुरे हों, दिन तो हुआ करें,
शामें, अच्छी हों, कुछ छन गुजरें ।

कमरे में सूनेपन की बातें,
कर लेंगे हम, सुन लेंगी रातें ।

चढ़ती धूप, उतरती किरणों से
कैसे जान बचे, कैसे उबरें !

नदी, पार्कों, लानों की शर्तें,
कच्ची नींव मकानों की शर्तें,
परिचय और अपरिचय की शर्तें,
एक-दूसरे को काटती फिरें ।

आए कोई हवा इधर कट के,
बात करें, बैठें थोड़ा सट के,
कुछ मौसम की,
कुछ बे-मौसम की,
लाएँ ढेरों की ढेरों ख़बरें ।

लाख बुरे हों, दिन तो हुआ करें,
शामें, अच्छी हों, कुछ छन गुजरें ।