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शाम का रंग / लालसिंह दिल / प्रितपाल सिंह

शाम का रंग फिर पुराना है
जा रहे हैं बस्तियों की ओर फुटपाथ
जा रही झील कोई दफ़्तर से
नौकरी से लेकर जवाब
पी रही है झील कोई जल की प्यास
चल पड़ा है शहर कुछ गाँवों की राह
फेंक कर कोई जा रहा है सारी कमाई
 
पोंछता आ रहा कोई धोती से खून
कमज़ोर पशुओं के शरीर से आरे का खून
 
शाम का रंग फिर पुराना है
छोड़ चले हैं एक और ग़ैरों की ज़मीन
छज्जे वाले
जा रहा है लम्बा वादा
झिड़कियों का भण्डार लादे
 
लम्बे सायों के साथ-साथ गधों पर
बैठे हैं शिशु
 
पिताओं के हाथ में कुत्ते हैं
माताओं की पीठ पीछे बंधे पतीले हैं
पतीलों में माँओं के बच्चे सोए हैं
 
जा रहा है लम्बा वादा
कन्धों पर उठाए झोंपड़ी के बांस
भूख के मारे यह कौन चीख़ रहा है?
ये किस भारत की ज़मीन रोकने जा रहे हैं ?
 
नौजवानों को कुत्ते प्यारे हैं
वे कहाँ पालें
महलों के चेहरों का प्यार ?
 
वे भूखों के शिकार छोड़ चल पड़े हैं
किन्हीं ग़ैरों की ज़मीन की ओर
 
जा रहा है लम्बा वादा
इनकों क्या पता है?
कितने बंधे कीलों के साथ
जलाए जाते हैं रोज़ लोग
जो छोड़ भी नहीं सकते
बस्तियों को किसी रोज़
जा रहा है साथ-साथ
बस्ती के पेड़ों का साया
पकड़ रहा है गृहासक्त पशुओं के पैर
घर के वियोग में तड़पते प्यार के पैर
जा रहा है लम्बा वादा
जा रहा है लम्बा वादा
हर जगह