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शाम लेने अब लगी अँगड़ाइयाँ / दिनेश गौतम

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शाम लेने अब लगी अँगड़ाइयाँ
क़द से लंबी हो गईं परछाइयाँ

ये सियासत की गली है, लाख बच,
तय यहाँ तेरी भी हैं रुसवाइयाँ

महफ़िलों की बात हमसे, क्यूँ भला,
चुन रखी हैं हमने तो तनहाइयाँ

कितनी उथली थी नदी, जिसकी तुम्हें,
था वहम कि खू़ब हैं गहराइयाँ

हो भले मातम यहाँ, पर उसके घर
किस तरह से बज रहीं शहनाइयाँ

ये हुनर क्या खू़ब उसने पा लिया,
‘धूप’ साबित हो गईं ‘जुन्हाइयाँ’

एक शायर की वसीयत क्या भला,
चंद ग़ज़लें, गीत औ‘ रूबाइयाँ