भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शाम होते ही मुरझा जाते हैं दिन भर के फूल / विजय सिंह नाहटा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

'शाम होते ही मुरझा जाते हैं दिन भर के फूल'
शाम होते ही कुछ यात्रा तय कर लेते धरती के नीचे अंकुर
शाम होते ही झर जाते कुछ पत्ते दुनिया के तमाम वृक्षों से
जिन्हें एक साथ झिंझोङने पर झरता रहता समय तलहटी में
शाम होते ही कुछ नये पत्ते हो जाते काबिज नश्वरता की डालियों पर
और कुछ-कुछ भारी हो जाता अस्मिता का गट्ठर
शाम होते ही कुछ-कुछ और व्यतीत हो जाते हम मृत्यु की तरफ़ अधर झुकते हुए
शाम होते ही आधा वर्तमान गिरने को आतुर रहता निकट अतीत में
कि आधा वर्तमान डूब जाता भविष्य की आतुर अधीर प्रतीक्षा में
शाम होते ही कुछ काम रह जाते आधे अधूरे लगभग विचाराधीन
शाम होते ही बहुत सारा हो जाता स्थगित नैसर्गिक रूप से आगत कल के लिए
शाम होते ही बच्चे की नींद में सहसा गिरती अज्ञात प्रदेशों से आती बहुत सारी अनियोजित गेंद
किसी अनिश्चित कल के आकाश में अनायास उछालेगा वह जोरों से भविष्य के चमकते सपनों की तरह
शाम होते ही गोया एक परिणाम हो जाता घोषित जीवन के इम्तिहान का
कुछ कुछ उत्थान भरा कुछ-कुछ अवसाद सना
कुछ कुछ आह्लाद लिए थोड़ा विषाद में डूबा-सा
शाम होते ही
ईश्वर लिख देता दैनिक डायरी में एक तटस्थ अनुच्छेद
ज्यों यूँ रहता उम्र के शिलालेख पर अंकित
शाम होते ही आवाज़ बदल जाती अलग-अलग शक्ल में
और जुङ जाती ट्रेन के डिब्बों की तरह
शाम होते ही
ज्यों शरद सुबह धुँध चीरकर आती एक ट्रेन दिख जाती स्मृति के किसी पुरातन स्टेशन पर
जिसके आधे डिब्बे भागते पीछे की ओर किसी अगम्य घाटी में
आधे आगे की ओर किसी अंतहीन सुरंग में
शाम होते ही
कातर नयन ताकता घर देहरी औ' दरवाजों पर मंडराती नश्वरता
शाम होते ही
पूरी कायनात पूरा कुनबा 'देखो सब किस तरह मरण की शरण में है जीवित'।