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शारदे! / उदयप्रताप सिंह

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संपदा त्रिलोक की न अब चाहिये मुझे,
सपूत कह के प्यार से पुकार दे ओ शारदे ।

रोम-रोम मातृ-ऋण भार से विनत-नत,
शुभ्र उत्तरीय से दुलार दे ओ शारदे ।

चेतना सदा ही रहे तेरी साधना की मातु
भावना दे, ज्ञान दे, विचार दे ओ शारदे ।

मोरपंख वाली लेखनी का कर शीश धर,
तार-तार वीणा झनकार दे ओ शारदे ।