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शारद प्रात / केदारनाथ सिंह

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सुबह उठा तो ऐसा लगा कि शरद आ गया,
आँखों को नीला-नीला आकाश भा गया,
धूप गिरी ऐसे गवाक्ष से
जैसे काँप गया हो शीशा
मेरे रोम-रोम ने तुम को
पता नहीं क्यों बहुत असीसा,
शरद तुम्हारे खेतों में सोना बरसाए,
छज्जों पर लौकियाँ चढ़ाए,
टहनी-टहनी फूल लगाए,
पत्ती-पत्ती ओस चुआए,
मेड़ों-मेड़ों दूब उगाए
शरद तुम्हारे बालों में गुलाब उलझाए,
छिन पल्ले का छोर ताल की ओर उड़ाए;
दूर-दूर से — 
हल्के-हल्के धानों के रुमाल हिलाए
बाँसों में सीटियाँ बजाए,
गलियारों में हाँक लगाए,
मन पर, बाँहों पर, कन्धों पर
हरसिंगार की डाल झुकाए,
पास कुएँ के खड़े आँवले की शाखों को ख़ूब कँपाए,
नदी तीर की नयी रेतियों से — 
दिन की सलवटें मिटाए,
लहरों में काँपता भोर का दिया सिराए,
तुलसी के तल धूप दिखाए,
चूल्हे पर उफने गरमाए,
सँग-सँग बैठा आँच लगाए,
साथ-साथ रोटियाँ सिंकाए,
शरद तुम्हारे तन पर छाए,
मन पर छाए,
नये धान की गन्ध सरीखा — 
घर आँगन, जँगल-दरवाज़ों में बस जाए
शरद कि जो मेरी खिड़की से भी — 
भिनसारे दिख जाता है,
खिंची धूप की टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं से
मेरे इस सागौन वृक्ष के पात-पात पर
नाम तुम्हारा लिख जाता है ।