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शिखर की ओर / विजेन्द्र

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जब भी मैंने देखा
शिखर की ओर
तुमने त्यौंरियाँ बदलीं
जब मैं चढ़ा
तुम ने चट्टानों के खण्ड
मेरी तरफ़ ढकेले ।

कई बार मैं गिरा
और पीछे हटा
कई बार टूटा और रोया
कई बार फिर प्रयत्न किए
कि चट्टानी लहरों का
कर सकूँ सामना ।

समय हर क्षण-
मेरी परीक्षा लेता रहा ।
मेरे पंख कहाँ
जो आकाश में उडूँ
ऊबड़-खाबड़
पृथ्वी चल कर ही
चढूँगा पहाड़ और मँगरियाँ
ओ दैत्य-
हर बार तू मुझे
धकेलेगा नीचे

जीवन ही है सतत् चढना-
और मेरे जीवन में
कभी नहीं हो सकती
अंतिम चढ़ाई ।