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शिमला प्रसंग : सात स्मरण / सिद्धेश्वर सिंह

एक / सामना

न्यू गेस्ट हाउस की
खुली खिड़की से झाँकते ही रहते हो
भाई देवदार ।

भूलने में ही है भलाई
पर
कहो तो
कैसे भूल पाऊँगा
मैं तुम्हारा प्यार
 
दो / खिलौना गाड़ी

हरियाली के
ऊँचे - नीचे मैदान में
पहाड़ खेल रहे हैं खेल

भूधर की खुरदरी हथेली पर
लट्टू-सी घूमती है रेल ।

तीन / सुरंग
 
जाना है उस पार
ऐसा ही कुछ कहता है अंधकार
भीतर सिहरते हैं
हर्ष और भय साथ-साथ

ऊँचे कड़ियल पहाड़ो का
सीना चीर देते हैं
छोटे-छोटे एक जोड़ी हाथ

बुदबुदाती है हवा बार-बार ।

चार/ रिज पर

एक छोटा-सा आभास
सुघड़ समतल संसार का
नीचे दीखती हैं मकानों की छतें
सर्दियों में जिन पर
धूप सेंकती होगी बर्फ़

ऊपर आसमान से होड़ करते पहाड़
एक सिरे पर खड़ा हैं
गाँधी बाबा का सादा बुत
यह जो दमक रही है चमकदार दुनिया
हमें बनाती हुई कूड़ा-कबाड़ ।
 
पाँच / समर हिल

रात में कवितायें सुनते हैं पेड़
स्टेशन उतारता है दिन भर की थकान
सड़क याद दिलाती है
बालूगंज के 'कृष्णा' की जलेबियों का स्वाद

हि०प्र० विश्वविद्यालय की
लाइब्रेरी के सबसे ऊपरी तल्ले से
आँख खोल देखो तो
घाटी में क़िताबों की तरह खुलते दीखते हैं बादल ।

कितना छोटा है मुलाक़ातों का सिलसिला
कल जब चला जाऊँगा मैदानों के समतल में
साथी होंगे धूल-धक्कड़ गर्द-ग़ुबार
तब नींद में थपकियाँ देने आएँगे पहाड़
और याद आएगी भूलती-सी याद ।

छह / बारिश

बारिश में कौन भीगता है
कौन होता है आर्द्र
कौन निचोड़ता है अपने गीले वसन
कौन सुखाता है धूप होते ही अपनी छतरी
कई-कई सवालों के साथ लौटूँगा अपने बियाबान में
क्या पता यहीं कहीं किसी पेड़ तले
ठिठका होगा मन ।

सात / लक्कड़ बाज़ार

काठ में जान
या जान हुई जाती है काठ
ठाठें मारते इस जन-समुद्र में
वनस्पतियों का सुनते हैं विलाप
भाषा यह नहीं है अबूझ
पकड़ में आते हैं इसके भी स्वर और व्यंजन
जब मटरगश्ती करते वानर भी कर लेते हैं संवाद
तब आपकी आँखों में क्यों उभरती है
अपरिचय की एकतरफ़ा धुन
निर्मल वर्मा होते तो देखते
'चीड़ों पर चाँदनी' और 'लाल टीन की छत'
पर यहाँ तो
आरा मशीनों की ओर कूच कर रहे हैं चीड़
और छतों पर जमी है कत्थई काई ।

पहाड़ केवल पहाड़ नहीं होते
न ही होते हैं
नदी नाले पेड़ बादल बारिश बर्फ़
पहाड़ वैसी कविता भी नहीं होते
जैसा कि बताते आए हैं सुमित्रानंदन पन्त ।

क्या करूँ
काठ के भीतर उतर गया अनायास
बेमतलब बेतुका-सा लगता रहा माल
चक्कर लगाए चार-पाँच यूँ ही निरुद्देश्य
रुका बुक स्टाल पर ज़रूर
पर पत्रिकाएँ लगीं सभी पुरानी
कोई क़िताब पसंद नहीं आई आज
अख़बार छुआ तो लुगदी में सन गए हाथ ।

कभी स्कूली दिनों में पढ़ा था
हरिऔध कॄत 'ठेठ हिन्दी का ठाठ'
लेकिन अभी तो
मुक्तिबोध का 'काठ का सपना' भी नहीं
हर ओर काठ और केवल काठ ।