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शिरीष का पेड़ / रणजीत

कुछ भी तो नहीं है यहाँ वैसा

न रंग-बिरंगे बादल-चित्रों से सजा आसमान
न सरेशाम सड़क पर सरसराती साड़ियों के समूह
न नीम-अँधेरे में से गुज़रती हुई
दुधमुँहे उभारों की भीनी-भीनी गंध
न लाल दरियाँ और घंटियाँ
न अँधेरी ठण्डक से जूझने के लिए
एक दूसरे के पास सिमट आने वाले मित्रों की
स्निग्ध निजी गरमाइश

पर सड़क के मोड़ पर आ जाता है अचानक
शिरीष का एक खिला हुआ पेड़
और सारा संदर्भ बदल देता है -
मन में एक अजीब सी बेकली भर जाता है
क्षण भर में बाँदा को वनस्थली कर जाता है !