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शिशु दोहावली / शिशु पाल सिंह 'शिशु'

(१)
जीव अनेकों में रमे, यद्यपि हो तुम एक,
नाथ! तुम्हे कितने कहे, एक कहें कि अनेक
(२)
रे जग- पथ के पथिक! तू तज विलास के चाव,
सरल ढाल ही लौट कर, होगा कठिन चढ़ाव
(३)
जग में जग कर सजग रहे, अपने चारों ओर,
चुरा न ले यह सुमति वन, कुविचारोंके चोर
(४)
आगा- पीछा देखकर, ऊँचारक्खो शीश,
पथ पर बाँये से चलो, दाएँ ये होंगे ईश
(५)
मिले कान दो, एक मुँह, इस का यही विवेक,
जब दो बातें सुन चुको, तब फिर बोलो एक
(६)
पवन- दूतको है, यही पुष्पों का आदेश,
देश- देश देते फिरो, सुरभि भरा संदेश
(७)
धरती पर तो धूल है, डाली पर हैं शूल,
दुहरे दुश्मनलगरहे, एक अकेला फूल
(८)
फूल! न फूलो गर्व से, अब भी समझो भूल,
उसके हँसने में झड़े, तुमसे अनगिन फूल
(९)
रे, गुलाब! निज वेश पर, तू इतना मत फूल,
जिस डाली में फूल हैं, उसी डाली में शूल
(१०)
अत्याचारी! समझ ले, अब भी अपनी भूल,
कहाँ दमन की डाल में, लगे अमन के फूल
(११)
रहे कुश – लता युक्त वे, जिनको माँ से द्रोह,
रहे कुशलता युक्तवे, जिनको माँ से मोह
(१२)
जो चाहो अमरत्व के, फल का सुन्दर स्वाद,
तो बनजाओ चाव से, राष्ट्र बेलिकी खाद
(१३)
मातृ- भूमि को नित यही, लगी हुई है आस,
बहने हों दुर्गावती, भाई दुर्गादास
(१४)
है अब भी भारतवही, यद्यपि है न विशेष,
चरण उठ गये, रह गये, चरण चिन्ह अवशेष
(१५)
रे तरु वर! क्यों रो रहा, तू मल– मल कर हाँथ,
तेरा ही तो काठ था, उस कुठार के साथ
(१६)
अभी जला ले काठ को, ए री ज्वाला ज्वलन्त!
हो जायेगा अन्त में, तेरा भी तो अन्त
(१७)
हेगोरे शशि! है तुम्हे, अति प्रिय काला रंग,
क्या जानो, तुम विश्व की, राजनीति के रंग
(१८)
उस तकली की शक्ति का किसे मिलेगा पार,
जिसके कच्चेतार से हिलता है संसार
(१९)
मातृ भूमि के नाम पर, नाथ रहो अनुकूल,
उसके पथ के शूल सब, कर दो कोमल फूल
(२०)
सदा किसानों से लगा , कर-कर के हैरान,
किसने हाय! लगन का, रक्खा नाम “ लगा न ”
(२१)
इधर अश्रु की धार है, उधर शास्त्र की धार,
कैसे दुहरी धार में, होगा बेड़ा पार
(२२)
रे नाविक! जानें तभी, तेरा शक्ति प्रभाव,
जब प्रतिकूल बहाव के, ले जाये तू नाव
(२३)
पिक से बढ़ कर जिस बाग में, हो कौवों का मान,
उसनन्दन वन से भला, मरघट या वीरान
(२४)
काट रहा है मौज से, अपने दिन संसार,
क्या भारत में ही हुआ, कलियुग का अवतार