Last modified on 16 नवम्बर 2014, at 21:44

शीत दंश / अब्दुर्रहमान ‘आज़ाद’

नभ कुपित है
कुपित है शीत लहर
सिहरा गया है बदन ज़मीन का
नंगे है पेड़ और पौधे
छिप गए हैं पत्ते वक़्त से पहले
धूप की खिली एक किरण-सी
कि बन गया चितकबरा यह सारा वातावरण

अरे ! यह भला क्या हुआ
‘धुनकी’ <ref>इंद्रधनुष की कमान</ref> उगी धीरे-धीरे देख समय का रूख
बदला रूप यथार्थ का, हुआ आलोड़न सपनों का
लगे फहराने चारों ओर शांतिध्वज
महल शोभित हो अप्सराओं का जैसे
बरसे कपास के फूल इस ओर
हुए फूल विकसित नए ढंग से
पहने लिए नए मुकुट गगनचुंबी पहाड़ों ने
लग गई शीत से कँपकँपी ग्राीष्म के बबर शेर को
किसी धनी ने तभी लगाया हीटर का प्लग
कि धुल गए काँच झरोखों के पसीनों से
लग गई आग किसी के झोंपड़े को बस यूँही
बुझ गया दीपक किसी की अँधेरी कोठरी का अभी
जर्जरित मकान को छूना पड़ता है पाँव उस आलीशान मकान का
चुभने लगी सुइयाँ-सी उसकी लोहे-सी छाती में
चिथड़ा लिहाफ़ में उसकी सिमट गई सृष्टि
कि इतने में झरझरा गया तारों भरा आकाश

शब्दार्थ
<references/>