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शेषशायी / जगदीश जोशी / क्रान्ति कनाटे

चलो,
अब मैं सो जाता हूँ ।
रोज़ अस्त होते
सूरज को तकिया बनाकर
चलो, अब मैं सो जाता हूँ ।

बहुत चाही हुई हवा के
नरम प्रवाह से मुझे अब कोई वास्ता नहीं ।
अपनी साँसों में उसका
शिल्प छिपाकर
चलो, अब मैं सो जाता हूँ ।

कभी उगे उस चन्द्रमा से
इकट्ठे किए उस मधु को
सपनों की पलकों में आँजकर
चलो, अब मैं सो जाता हूँ ।

कजलाते दियों के
मेरी खिड़की से झाँकते
उजाले को ओढ़कर
चलो, अब मैं सो जाता हूँ ।

उस समुद्र से कह दो कि
वह अपना गर्जन बन्द करे
उसके सारे के सारे खारेपन को उलीचकर
मैंने उसके तल में बिछा दिया है ।
उसे कहो कि वह मुझे तंग न करे ।
चलो, अब मैं सो जाता हूँ ।

मेरे आसपास बसी दिशाएँ शायद
कुछ देर को बेचैन हो जाएँगी ।

मूल गुजराती से अनुवाद : क्रान्ति कनाटे