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शैतान / अदनान कफ़ील दरवेश

अब वो काले कपड़े नहीं पहनता
क्यूँकि ताण्डव का कोई ख़ास रँग नहीं होता
ये काला भी हो सकता है और लाल भी
भगवा भी और हरा भी।

अब वो आँखों में सुरमा भी नहीं लगाता
अब वो हवा में लहराता हुआ भी नहीं आता
ना हीं अब उसकी आँखें सुर्ख़ और डरावनी दिखतीं हैं
वो अब पहले की तरह चीख़-चीख़कर भी नहीं हँसता
ना हीं उसके लम्बे बिखरे बाल होते हैं अब।

क्यूँकि इस दौर का शैतान
इनसान की खाल में खुलेआम घूमता है
वो रहता है हमारे जैसे घरों में
खाता है हमारे जैसे भोजन
घूमता है टहलता है
ठीक हमारी ही तरह सड़कों पर
और मज़ा तो ये
कि वो अख़बार में भी छपता है
टी.वी. में भी आता है.

लेकिन अब उसे कोई शैतान नहीं कहता
क्यूँकि उसके साथ जुड़ी होती हैं जनभावनाएँ
लोग उसे ’सेवियर’ समझते हैं
और अब अदालतें भी कहाँ
सच और झूठ पर फ़ैसले देतीं हैं, साथी?
अब तो गवाह और सबूत एक तरफ़
और सामूहिक जनभावनाएँ दूसरी तरफ़।

अब इस अल्ट्रा मॉडर्न शैतान की शैतानियाँ
नादानियाँ कही जाती हैं
क्रिया-प्रतिक्रिया कही जातीं हैं।

इस दौर का शैतान बेहद ख़तरनाक है
क्यूँकि अब उसकी कोई ख़ास शक़्ल नहीं होती
वो पल-पल भेस बदले है, साथी
वो तेरे और मेरे अन्दर भी
आकर पनाह लेता है कभी-कभी।

अब ज़रूरत इस बात की है
कि हम अपने इनसानी वजूद को बचाने के लिए
छेड़ें इस शैतान के साथ
एक आख़िरी जिहाद
एक आख़िरी जंग
इससे पहले की बहुत देर हो जाए...

(रचनाकाल: 2016)