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"शैलेन्द्र के प्रति / नागार्जुन" के अवतरणों में अंतर

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'गीतों के जादूगर का मैं छंदों से तर्पण करता हूँ ।'
 
'गीतों के जादूगर का मैं छंदों से तर्पण करता हूँ ।'
 
  
 
सच  बतलाऊँ तुम  प्रतिभा के ज्योतिपुत्र थे,छाया क्या थी,
 
सच  बतलाऊँ तुम  प्रतिभा के ज्योतिपुत्र थे,छाया क्या थी,
 
 
भली-भाँति देखा था मैंने, दिल ही दिल थे, काया क्या थी ।
 
भली-भाँति देखा था मैंने, दिल ही दिल थे, काया क्या थी ।
 
  
 
जहाँ  कहीं  भी  अंतर्मन  से, ॠतुओं की सरगम सुनते थे,
 
जहाँ  कहीं  भी  अंतर्मन  से, ॠतुओं की सरगम सुनते थे,
 
 
ताज़े  कोमल  शब्दों  से  तुम  रेशम  की जाली बुनते थे ।
 
ताज़े  कोमल  शब्दों  से  तुम  रेशम  की जाली बुनते थे ।
 
  
 
जन मन जब हुलसित होता था, वह थिरकन भी पढ़ते थे तुम,
 
जन मन जब हुलसित होता था, वह थिरकन भी पढ़ते थे तुम,
 
 
साथी  थे, मज़दूर-पुत्र  थे, झंडा  लेकर  बढ़ते  थे तुम ।
 
साथी  थे, मज़दूर-पुत्र  थे, झंडा  लेकर  बढ़ते  थे तुम ।
 
  
 
युग  की अनुगुंजित  पीड़ा ही  घोर  घन-घटा-सी  छाई
 
युग  की अनुगुंजित  पीड़ा ही  घोर  घन-घटा-सी  छाई
 
 
प्रिय भाई शैलेन्द्र, तुम्हारी  पंक्ति-पंक्ति  नभ  में लहराई ।
 
प्रिय भाई शैलेन्द्र, तुम्हारी  पंक्ति-पंक्ति  नभ  में लहराई ।
 
  
 
तिकड़म  अलग  रही मुस्काती, ओह, तुम्हारे पास न आई,
 
तिकड़म  अलग  रही मुस्काती, ओह, तुम्हारे पास न आई,
 
 
फ़िल्म-जगत की जटिल विषमता, आख़िर तुमको रास न आई ।
 
फ़िल्म-जगत की जटिल विषमता, आख़िर तुमको रास न आई ।
 
  
 
ओ जन मन के सजग चितेरे, जब-जब याद तुम्हारी आती,
 
ओ जन मन के सजग चितेरे, जब-जब याद तुम्हारी आती,
 
 
आँखें  हो  उठती  हैं  गीली, फटने-सी  लगती  है छाती ।
 
आँखें  हो  उठती  हैं  गीली, फटने-सी  लगती  है छाती ।
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12:43, 25 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

'गीतों के जादूगर का मैं छंदों से तर्पण करता हूँ ।'

सच बतलाऊँ तुम प्रतिभा के ज्योतिपुत्र थे,छाया क्या थी,
भली-भाँति देखा था मैंने, दिल ही दिल थे, काया क्या थी ।

जहाँ कहीं भी अंतर्मन से, ॠतुओं की सरगम सुनते थे,
ताज़े कोमल शब्दों से तुम रेशम की जाली बुनते थे ।

जन मन जब हुलसित होता था, वह थिरकन भी पढ़ते थे तुम,
साथी थे, मज़दूर-पुत्र थे, झंडा लेकर बढ़ते थे तुम ।

युग की अनुगुंजित पीड़ा ही घोर घन-घटा-सी छाई
प्रिय भाई शैलेन्द्र, तुम्हारी पंक्ति-पंक्ति नभ में लहराई ।

तिकड़म अलग रही मुस्काती, ओह, तुम्हारे पास न आई,
फ़िल्म-जगत की जटिल विषमता, आख़िर तुमको रास न आई ।

ओ जन मन के सजग चितेरे, जब-जब याद तुम्हारी आती,
आँखें हो उठती हैं गीली, फटने-सी लगती है छाती ।