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शोक गीत 1 / सोनी पाण्डेय

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तुम्हें छोड़ कर जब भी लौटती हूँ
दो उदास आँखों की नमी
चली आती साथ -साथ
फाटक के खंभे पर सिर टिकाए खड़ी
जहाँ छोड़ कर आती हूँ
वहीं मिलती हो हर बार
जैसे ठहरी रहती है नदी सागर के अतल में
तुम ठहरी हो वहीं
जहाँ से बिछड़े थे हम
विदा होते और करते.......
उस चौराहे पर देख आती हो रास्ता
जिधर से आती है बस मेरे शहर की
एक दीपक जलाने के बहाने
चौराहे की देवी को....
अब समझती हूँ
कि हम औरतें चौराहे
नीम के चबूतरे
क्यों पूजती हैं
मिल लेते हैं इसी बहाने कुछ पहचाने चेहरों से
जो मिलते हैं मुझसे और तुमसे....
मैं उदासियों के शहर में जब भी रोती हूँ
एक बुलबुल पुचकार जाती है खिड़की से
तुम्हारे चावलों का कर्ज चुकाते वह मुस्कुराती है
और मैं डूब जाती हूँ तुम्हारे गीतों के शोकाकुल संसार में कि अम्मा!
छोड़ते घर की देहरी
गली....सड़कों...
हवा और पानी मैं सिहरती हूँ
बैठे बैठे बस में बुदबुदा कर दम भर रो लेती हूँ
कि नइहर गंगा छूटत नाहीं....
जानती हूँ कि यह तुम्हारा ही नहीं
हम पूरी औरतों की कौम का
सबसे करुण
शोक गीत है...