भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शौक़ रातों को है दर पे कि तपाँ हो जाऊँ / सिराजुद्दीन ज़फर

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:52, 21 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सिराजुद्दीन ज़फर |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शौक़ रातों को है दर पे कि तपाँ हो जाऊँ
रक़्स-ए-वहशत में उठूँ और धुआँ हो जाऊँ

साथ अगर बाद-ए-सहर दे तो पस-ए-महमिल-ए-यार
इक भटकती हुई आवाज़-ए-फ़ुग़ाँ हो जाऊँ

अब ये एहसास का आलम है कि शायद किसी रात
नफ़स-ए-सर्द से भी शोला-ब-जाँ हो जाऊँ

ला सुराही कि करूँ वहम ओ गुमाँ ग़र्क-ए-शराब
इस पहले कि मैं ख़ुद वहम ओ गुमाँ हो जाऊँ

वो तमाशा हो हज़ारों मिरे आईने में
एक आईने से मुश्किल है अयाँ हो जाऊँ

शौक़ में ज़ब्त है मलहूज़ मगर क्या मालूम
किसी घड़ी बे-ख़बर-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ हो जाऊँ

ऐसा अंदाज़-ए-ग़ज़ल हो कि ज़माने में ‘ज़फ़र’
दूर आइंदा की क़द्रों का निशाँ हो जाऊँ